ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 4
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अपा॑दु शि॒प्र्यन्ध॑सः सु॒दक्ष॑स्य प्रहो॒षिण॑: । इन्दो॒रिन्द्रो॒ यवा॑शिरः ॥
स्वर सहित पद पाठअपा॑त् । ऊँ॒ इति॑ । शि॒प्री । अन्ध॑सः । सु॒ऽदक्ष॑स्य । प्र॒ऽहो॒षिणः॑ । इन्दोः॑ । इन्द्रः॑ । यव॑ऽआशिरः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादु शिप्र्यन्धसः सुदक्षस्य प्रहोषिण: । इन्दोरिन्द्रो यवाशिरः ॥
स्वर रहित पद पाठअपात् । ऊँ इति । शिप्री । अन्धसः । सुऽदक्षस्य । प्रऽहोषिणः । इन्दोः । इन्द्रः । यवऽआशिरः ॥ ८.९२.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let Indra, the ruler, value, protect and promote the soma homage mixed and strengthened with the delicacies of life and offered by the generous and enlightened people. (The mantra points to the circulation of wealth and economy of the nation managed by the tax payers and the ruling powers of the government.)
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात राजाच्या कर्तव्याचे व त्याच्या लक्षणाचे संकेत दिलेले आहेत. अर्थ स्पष्ट आहे. ॥४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शिप्री) सुन्दर मुख नासिका आदि से युक्त तथा मुकुटधारी. (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजपुरुष (सु-दक्षस्य) उत्तम ज्ञान तथा बल युक्त, (प्रहोषिणः) प्रकृष्ट रूप से समर्पित किये हुए (यवाशिरः) यव आदि को मिलाकर पकाये गए, (इन्दोः) आनन्ददायक, (अन्धसः) स्वादु अन्न का (अपात्) ग्रहण तथा उसकी रक्षा करे॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में शासक के कर्त्तव्य तथा उसके लक्षण का संकेत दिया गया है; अर्थ स्पष्ट है॥४॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( शिप्री ) मुकुट धारण करने हारा, मुख-नासिकादि में सुन्दर, ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( सु-दक्षस्य ) उत्तम ज्ञान और बल से युक्त ( प्र-होषिणः ) उत्तम रीति से बलादि देने वाले, ( यवाशिरः ) यवादि अन्नों से मिलाकर पकाये, ( इन्दोः ) दीप्ति-तेजोदायक ( अन्धसः ) स्वादु अन्न को ( अपात् ) पान करे और उसकी रक्षा करे। इसी प्रकार वह ( सु-दक्षस्य ) उत्तम बलशाली ( प्र-होषिणः ) उत्तम दानी ( इन्दोः ) आर्द्र हृदय, दयालु ( यवाशिरः ) शत्रुनाशक जनों के प्रमुख ( अन्धसः ) अन्नादि के भोक्ता, जन को (अपाद्-उ ) वह ऐश्वर्यवान् पालन करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सुदक्षस्य प्रहोषिणः
पदार्थ
[१] वे (शिप्री) = उत्तम हनु व नासिकाओं को प्राप्त करानेवाले प्रभु खूब चबाकर भोजन करने व प्राणायाम श्रमसाधनों से (अन्धसः) = शरीर रथ सोम का (उ) = निश्चय से (अपाद्) = रक्षण करते हैं। इस सोम का जो (सुदक्षस्य) = हमें उत्तम बल को देता है तथा (प्रहोषिणः) = हमें त्याग की वृत्तिवाला बनाता है [हु दाने] । [२] (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (इन्दोः) = इस सोम के द्वारा (यवाशिरः) = [यु अभिश्रणे, शृ हिंसायाम्] सब मलों का हमारे से अभिश्रण करनेवाले व सब वासनाओं का संहार करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम उत्तम सात्त्विक भोजन को चबाकर खायें तथा प्राणायाम में प्रवृत्त हों। इस प्रकार सोमरक्षण द्वारा जीवन को नीरोग व पवित्र बनानेवाले हों। यह सोम हमें उत्तम बलवाला व त्याग की वृत्तिवाला बनायेगा ।
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