ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 29
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ए॒वा रा॒तिस्तु॑वीमघ॒ विश्वे॑भिर्धायि धा॒तृभि॑: । अधा॑ चिदिन्द्र मे॒ सचा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । रा॒तिः । तु॒वि॒ऽम॒घ॒ । विश्वे॑भिः । धा॒यि॒ । धा॒तृऽभिः॑ । अध॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । मे॒ । सचा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा रातिस्तुवीमघ विश्वेभिर्धायि धातृभि: । अधा चिदिन्द्र मे सचा ॥
स्वर रहित पद पाठएव । रातिः । तुविऽमघ । विश्वेभिः । धायि । धातृऽभिः । अध । चित् । इन्द्र । मे । सचा ॥ ८.९२.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 29
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, generous lord of the wealth and glory of the world, thus by practice and meditation, is divine generosity cultivated and achieved by all those who bear and bring the offerings to you. O lord of power and immense generosity, be my friend and companion.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर पोषणकर्ता आहे. पोषणकर्ता दानशील नसेल तर पोषण सामर्थ्य कसे देईल? परमेश्वर हा खऱ्या भक्ताचा सदैव साथी, मित्र असतो. तो आपल्याला पोषणसामर्थ्य का देणार नाही? ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (तुवीमघ) भाँति-भाँति के ऐश्वर्य के धनी परमात्मा! (विश्वेभिः) सभी (धातृभिः) पोषणकारियों द्वारा (रातिः एवा) दानशीलता ही (धायि) धारण की गई है; (अधा) इसके अतिरिक्त तो (इन्द्र) हे शक्तिशाली! तू (नः) हमारा (सखा) सखा ही है॥२९॥
भावार्थ
परमेश्वर पोषणकर्ता के रूप में प्रसिद्ध है; और पोषणकर्ता कोई भी हो, वह दानशील होगा ही, अन्यथा पोषणसामर्थ्य कैसे देगा! सच्चे भक्त का तो भगवान् सदैव साथी, सखा ही होता है--वह अपने सखा, हमें पोषण सामर्थ्य क्यों न प्रदान करेगा?॥२९॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( तुवी-मघ ) बहुत धन के स्वामिन् ! ( रातिः एव ) तेरा दान ही ( विश्वेभिः धातृभिः धायि ) सब पोषक जन धारण करते हैं। हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( अधचित् मे सचा ) और तू ही मेरा सहायक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
दान की वृत्ति व प्रभु मित्रता
पदार्थ
[१] हे (तुवीमघ) = महान् ऐश्वर्यवाले प्रभो ! (विश्वेभिः) = सब (धातृभिः) = धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त उपासकों से (एवा) = सचमुच (रातिः) = दान की वृत्ति (धायि) = धारण की जाती है। इस वृत्ति के बिना धारणात्मक कर्मों का सम्भव भी तो नहीं। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अधा) = अब (चित्) = निश्चय से आप (मे सचा) = मेरे साथ होते हैं। दान की वृत्ति ही मुझे आपका प्रिय बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ- हम दान की वृत्ति को अपनाकर धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। यह वृत्ति ही मुझे प्रभु की मित्रता को प्राप्त कराती है।
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