ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 9
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
शिक्षा॑ ण इन्द्र रा॒य आ पु॒रु वि॒द्वाँ ऋ॑चीषम । अवा॑ न॒: पार्ये॒ धने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठशिक्ष॑ । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । रा॒यः । आ । पु॒रु । वि॒द्वान् । ऋ॒ची॒ष॒म॒ । अव॑ । नः॒ । पार्ये॑ । धने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
शिक्षा ण इन्द्र राय आ पुरु विद्वाँ ऋचीषम । अवा न: पार्ये धने ॥
स्वर रहित पद पाठशिक्ष । नः । इन्द्र । रायः । आ । पुरु । विद्वान् । ऋचीषम । अव । नः । पार्ये । धने ॥ ८.९२.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, leader in knowledge and wisdom, pursuer of the path of rectitude, guide and lead us to ample wealth and protect us through our struggle for victory of honour and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा ऐश्वर्यवान असतो. अनेक वेळा प्रजेला ऐश्वर्याचे साधन देऊन त्यांना असे ऐश्वर्य प्रदान करतो की, जे प्रजेचे सर्व अडथळे दूर करून प्रजेला लक्ष्यापर्यंत पोचविते ॥९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
प्रजाजनों के बीच विद्यमान ऐश्वर्यशाली-इन्द्रपदवाच्य राजा से प्रजापुरुष प्रार्थना करते हैं— हे (ऋचीषम) सर्वथा स्तुति योग्य! (विद्वान्) सारी बातों से सुपरिचित आप (इन्द्र) राजपुरुष! (नः) हमें (रायः) दातव्य ऐश्वर्य (पुरु) अनेक बार शिक्षा प्रदान करें; (पार्ये) निर्णायक--पार पहुँचाने वाले (धने) ऐश्वर्य की प्राप्ति तक (नः अव) हमें बचा॥९॥
भावार्थ
राजा ऐश्वर्ययुक्त है; वह अनेक अवसरों पर प्रजा को ऐश्वर्य के साधन दे उन्हें ऐसा ऐश्वर्य देता है कि जो प्रजा को सब बाधाएं पार करा लक्ष्य तक पहुँचा देता है॥९॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( ऋचीषम ) यथार्थ गुण स्तुति वाले ! तू ( नः ) हमें ( पुरु रायः शिक्ष ) बहुत धन प्रदान कर। तू ( विद्वान् ) ज्ञानवान् होकर ( नः ) हमें (पार्ये धने) पालन योग्य धन, वा शत्रुओं के धन के निमित्त वा संग्राम में ( अव ) रक्षा कर, वहां तक पहुंचा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पार्यधन
पदार्थ
[१] हे (ऋचीषम) = [ऋच्, ईष् गतो] स्तुति के द्वारा गन्तव्य प्रभो ! (नः) = हमें (रायः) = धनों को (आशिक्ष) = दीजिये। हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं के विद्रावक प्रभो! आप (पुरु) = खूब ही (विद्वान्) = ज्ञानवान् हैं। हमारे लिये आवश्यक धनों को आप प्राप्त कराते ही हैं। [२] हे प्रभो! आप (नः) = हमें (पार्ये धने) = जीवन यात्रा के पूर्ण करने के लिये आवश्यक धन से (अवा) = रक्षित करिये। आवश्यक धन प्राप्त कराके आप हमारा रक्षण करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तुति के द्वारा सान्निध्य के योग्य हैं। वे हमें जीवन-यात्रा के लिये आवश्यक धन को प्राप्त कराते हैं।
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