ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 19
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
इन्द्रा॑य॒ मद्व॑ने सु॒तं परि॑ ष्टोभन्तु नो॒ गिर॑: । अ॒र्कम॑र्चन्तु का॒रव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रा॑य । मद्व॑ने । सु॒तम् । परि॑ । स्तो॒भ॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ । अ॒र्कम् । अ॒र्च॒न्तु॒ । का॒रवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्राय मद्वने सुतं परि ष्टोभन्तु नो गिर: । अर्कमर्चन्तु कारव: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्राय । मद्वने । सुतम् । परि । स्तोभन्तु । नः । गिरः । अर्कम् । अर्चन्तु । कारवः ॥ ८.९२.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 19
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Let all our voices of admiration flow and intensify the soma for the joy of Indra, and let the poets sing songs of adoration for him and celebrate his achievements.
मराठी (1)
भावार्थ
भगवान आनंदस्वरूप आहे. त्याच्या आनंदी असण्याचे मर्म आम्हाला समजले पाहिजे व त्याची प्रशंसा करून त्याला प्राप्त करण्याची अभिलाषा मनात जागविली पाहिजे. कुशल साधनेनेच हा दिव्य आनंद प्राप्त केला जाऊ शकतो. ॥१९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(मद्वने) आनन्द विभोर (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान् हेतु (सुतम्) निष्पादित दिव्य आनन्द की (नः गिरः) हमारी वाणी (परि, स्तोभन्तु सर्वतः) प्रशंसा करें। पुनश्च इस (अर्कम्) सारभूत सोम तत्त्व की (कारवः) कर्म दक्ष--परम लक्ष्य के कुशल साधक ही (अर्चन्तु) सेवा करते हैं--अथवा इसे प्राप्त करते हैं। १९॥
भावार्थ
परमात्मा आनन्दस्वरूप हैं; हमें उनके आनन्द का मर्म समझना चाहिए और हम उसकी प्रशंसा कर उसे प्राप्त करने की अभिलाषा मन में जगाएं। कुशल साधना से ही यह दिव्य आनन्द प्राप्त हो सकता है॥१९॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
( मद्वने ) हर्ष से युक्त ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् स्वामी के लिये ( नः गिरः सुतं परि स्तोभन्तु ) हमारी वाणी उसके ऐश्वर्य की स्तुति करे। और ( कारवः ) विद्वान् वाग्मी लोग ( अर्कम् अर्चन्तु ) उस पूज्य जन की अर्चना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
सोम का स्वाध्याय व स्तवन द्वारा शरीर में स्तोभन [रोकना]
पदार्थ
[१] उस (मद्वने) = [मद्+वन्] हर्ष का सम्भजन करनेवाले, आनन्दस्वरूप (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (नः गिरः) = हमारी ज्ञान की वाणियाँ (सुतं परिष्टोभन्तु) = उत्पन्न हुए हुए सोम को शरीर में ही चारों ओर रोकनेवाली हों। [ स्तोभते =stop] शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर ही प्रभु की प्राप्ति होती है। [२] (कारवः) = क्रियाओं को कुशलता से करने के द्वारा प्रभु का अर्चन करनेवाले स्तोता (अर्कम्) = उस उपासनीय प्रभु का (अर्चन्तु) = पूजन करें। कर्त्तव्य कर्मों को करके उन्हें प्रभु के लिये अर्पित करना ही प्रभु का अर्चन है।
भावार्थ
भावार्थ-उस आनन्दमय प्रभु की प्राप्ति के लिये सोम का रक्षण आवश्यक है । सोमरक्षण के लिये स्वाध्याय व प्रभु-स्तवन साधन बनते हैं।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal