ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 92/ मन्त्र 11
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अया॑म॒ धीव॑तो॒ धियोऽर्व॑द्भिः शक्र गोदरे । जये॑म पृ॒त्सु व॑ज्रिवः ॥
स्वर सहित पद पाठअया॑म । धीऽव॑तः । धियः॑ । अर्व॑त्ऽभिः । श॒क्र॒ । गो॒ऽद॒रे॒ । जये॑म । पृ॒त्ऽसु । व॒ज्रि॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयाम धीवतो धियोऽर्वद्भिः शक्र गोदरे । जयेम पृत्सु वज्रिवः ॥
स्वर रहित पद पाठअयाम । धीऽवतः । धियः । अर्वत्ऽभिः । शक्र । गोऽदरे । जयेम । पृत्ऽसु । वज्रिऽवः ॥ ८.९२.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 92; मन्त्र » 11
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O wielder of power and force, let us come to have leaders and warriors endowed with high intelligence and enlightened will for action and, O lord of thunderous power, in the development of lands and breaking of mountains, let us win our battles by virtue of our cavaliers and pioneers.
मराठी (1)
भावार्थ
राजपुरुषाचा आदर्श समोर ठेवून आम्हीही त्याच्याप्रमाणे नाना विद्या जाणणारे व कर्मकुशल बनावे. याप्रकारे राजासहित आम्ही सर्वजणांनी आपल्या विघ्नबाधांवर मात करावी. ॥११॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (शक्र) समर्थ! (वज्रिवः) शस्त्र-अस्त्र इत्यादि साधनों वाले, (गोदरे) भूमि एवं पर्वत आदि के विदारण सरीखे प्रयत्नसाध्य कर्मों के द्वारा धनधान्य प्राप्त करने वाले राजपुरुष (धीवतः) प्रशस्त कर्म तथा ज्ञान वाले पुरुषों की (धियः) ज्ञान एवं कर्म शक्तियों को (अयाम) प्राप्त करें और (पृत्सु) संघर्ष स्थलों में (जयेम) विजयी हों।॥११॥
भावार्थ
राजपुरुष का आदर्श समक्ष रख हम भी उसी के समान नाना विद्याओं के ज्ञाता तथा कर्मकुशल बनें और इस भाँति राज-सहित हम भी बाधाओं पर विजय पाएं॥११॥
विषय
उस के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( शक्र ) शक्तिशालिन् ! अन्यों को शक्ति देने हारे ! हम ( धीवतः ) कर्म और ज्ञानवान् पुरुष के ( धियः ) कर्मों और ज्ञानों को ( अयाम ) प्राप्त करें। हे ( गो-दरे ) गौ भूमि के विदारण-कार्य में कुशल कृषि करने वाले ! हे (गो-दरे) वाणी के मर्मों को खोल २ कर बतलाने हारे, वा भूमि या वाणी के धारक ! हे ( वज्रिवः ) बलशालिन् शस्त्रधर ! हम ( अर्वद्भिः ) अश्व, वीर सैनिकों द्वारा ( पृत्सु जयेम ) संग्रामों में विजय लाभ करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्रुतकक्षः सुकक्षो वा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१ विराडनुष्टुप् २, ४, ८—१२, २२, २५—२७, ३० निचृद् गायत्री। ३, ७, ३१, ३३ पादनिचृद् गायत्री। २ आर्ची स्वराड् गायत्री। ६, १३—१५, २८ विराड् गायत्री। १६—२१, २३, २४,२९, ३२ गायत्री॥ त्रयस्त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
शक्र, गोदरे, वज्रिवः
पदार्थ
[१] हे (शक्र) = शक्ति सम्पन्न (गोदरे) = ज्ञान की वाणियों के मर्मों को खोलनेवाले प्रभो! हम आपका स्तवन करते हुए (धीवतः) = प्रशस्त बुद्धि व कर्मोंवाले पुरुष के (धियः) = ज्ञानपूर्वक किये जानेवाले कर्मों को (आयाम) = प्राप्त हों। [२] हे (वज्रिवः) = वज्रहस्त अथवा गतिशील प्रभो ! हम (अर्वद्भिः) = आप से दिये गये इन इन्द्रियाश्वों के द्वारा (पृत्सु) = संग्रामों में (जयेम) = विजयी हों। हम ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्ति में तथा कर्मेन्द्रियों से यज्ञादि उत्तम कर्मों में उत्पन्न हुए हुए वासनाओं को सदा जीतनेवाले बनें।
भावार्थ
भावार्थ - उपासित प्रभु हमें शक्ति सम्पन्न बनाते हैं, हमारे लिये ज्ञान की वाणियों के मर्मों को बींधते हैं, हमें क्रियाशील बनाते हैं। ज्ञानपूर्वक कर्मों में प्रवृत्त हुए हुए हम सदा वासना-संग्राम में विजयी बनें।
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