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यजुर्वेद अध्याय - 34

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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 2
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    406

    येन॒ कर्मा॑ण्य॒पसो॑ मनी॒षिणो॑ य॒ज्ञे कृ॒ण्वन्ति॑ वि॒दथे॑षु॒ धीराः॑।यद॑पू॒र्वं य॒क्षम॒न्तः प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑। कर्मा॑णि। अ॒पसः॑। म॒नी॒षिणः॑। य॒ज्ञे। कृ॒ण्वन्ति॑। वि॒दथे॑षु। धीराः॑ ॥ यत्। अ॒पू॒र्वम्। य॒क्षम्। अ॒न्तरित्य॒न्तः। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु ॥२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन कर्माण्यपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति विदथेषु धीराः। यदपूर्वँयक्षमन्तः प्रजानान्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    येन। कर्माणि। अपसः। मनीषिणः। यज्ञे। कृण्वन्ति। विदथेषु। धीराः॥ यत्। अपूर्वम्। यक्षम्। अन्तरित्यन्तः। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे परमेश्वर वा विद्वन्! भवत्सङ्गेन येनापसो मनीषिणो धीरा यज्ञे विदथेषु च कर्माणि कृण्वन्ति यदपूर्वं प्रजानामन्तर्यक्षं वर्त्तते, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥२॥

    पदार्थः

    (येन) मनसा (कर्माणि) कर्त्तुरीप्सिततमानि क्रियमाणानि (अपसः) अपः कर्म तद्वन्तः सदा कर्मनिष्ठाः (मनीषिणः) मनस ईषिणो दमनकर्त्तारः (यज्ञे) अग्निहोत्रादौ धर्मेण सङ्गतव्यवहारे योगाभ्यासे वा (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (विदथेषु) विज्ञानयुद्धादिव्यवहारेषु (धीराः) ध्यानवन्तो मेधाविनः। धीर इति मेधाविनामसु पठितम्॥ (निघं॰३।१५) (यत्) (अपूर्वम्) अनुत्तमगुणकर्मस्वभावम् (यक्षम्) पूजनीयं सङ्गतं वा। अत्रौणादिकः सन् प्रत्ययः। (अन्तः) मध्ये (प्रजानाम्) प्राणिमात्राणाम् (तत्) (मे) मम (मनः) मननविचारात्मकम् (शिवसङ्कल्पम्) धर्मेष्टम् (अस्तु)॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः परमेश्वरस्योपासनेन सुविचारविद्यासत्सङ्गैरन्तःकरणधर्माचारान्निवर्त्य धर्माचारे प्रवर्त्तनीयम्॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे परमेश्वर वा विद्वन्! जब आपके सङ्ग से (येन) जिस (अपसः) सदा कर्म धर्मनिष्ठ (मनीषिणः) मन का दमन करनेवाले (धीराः) ध्यान करनेवाले बुद्धिमान् लोग (यज्ञे) अग्निहोत्रादि वा धर्मसंयुक्त व्यवहार वा योगयज्ञ में और (विदथेषु) विज्ञानसम्बन्धी और युद्धादि व्यवहारों में (कर्माणि) अत्यन्त इष्ट कर्मों को (कृण्वन्ति) करते हैं, (यत्) जो (अपूर्वम्) सर्वोत्तम गुण, कर्म, स्वभाववाला (प्रजानाम्) प्राणिमात्र के (अन्तः) हृदय में (यक्षम्) पूजनीय वा सङ्गत हो के एकीभूत हो रहा है, (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मनन-विचार करना रूप मन (शिवसङ्कल्पम्) धर्मेष्ट (अस्तु) होवे॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर की उपासना, सुन्दर विचार, विद्या और सत्सङ्ग से अपने अन्तःकरण को अधर्माचरण से निवृत्त कर धर्म के आचरण में प्रवृत्त करें॥२॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = ( येन ) = जिस मन से  ( अपस: ) = कर्म करनेवाले उद्यमी और  ( मनीषिण: ) = दृढ़ निश्चयवाले ज्ञानी और ( धीराः ) = ध्यान करनेवाले महात्मा लोग ( विदथेषु ) = ज्ञानयुक्त  व्यवहारों और युद्धादिकों में और  ( यज्ञे ) = यज्ञ वा परमपूज्य परमात्मा की प्राप्ति के लिए  ( कर्माणि ) =  अनेक उत्तम कर्मों का  ( कृण्वन्ति  ) = सेवन करते हैं और  ( यत् ) = जो  ( प्रजानाम्‌ अन्तः ) = सब प्रजाओं के अन्तर मध्य में  ( अपूर्वम्‌ ) = अद्‌भुत सबसे श्रेष्ठ ( यक्षम् ) = पूजनीय, सब इन्द्रियों का प्रेरणा करनेवाला है ( तत् मे मन: ) = वह ऐसा मेरा मन  ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) =  शुभ सङ्कल्प करनेवाला हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम सब जिज्ञासु पुरुषों को चाहिये कि, अपने मन को बुरे कर्मों से हटाकर परमेश्वर की उपासना, सुन्दर विचार, वेद विद्या, उत्तम महात्माओं के सत्सङ्ग में लगावें, क्योंकि जो उत्तम यज्ञादि कर्म करनेवाले परम ज्ञानी अपने मन को वश में करनेवाले और ध्याननिष्ठ धीर मेधावी पुरुष हैं, वे सब अधर्माचरण से अपने मन को हटाकर, श्रेष्ठ ज्ञान कर्म और योगाभ्यासादि में लगाते हैं। मेरा मन भी दयामय आप परमात्मा की कृपा से उत्तम सङ्कल्प और परमात्मा के ध्यान में संलग्न हो ।

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    विषय

    शिवसंकल्पसूक्त ।

    भावार्थ

    (येन) जिस मन से (अपसः) कर्म करने हारे, कर्मण्य पुरुष और (मनीषिणः) मनस्वी, दृढ़ निश्चयी, ज्ञानी और (धीराः) ध्याननिष्ठ योगी जन, ( विदथेषु ) यज्ञों, ज्ञानयुक्त व्यवहारों, सभास्थानों और युद्धादि के अवसरों में और (यज्ञे) यज्ञ या परम उपासनीय पूज्य परमेश्वर के निमित्त (कर्माणि) नाना उत्तम कर्म (कुर्वन्ति) करते हैं और ( यत् ) जो (प्रजानाम् अन्तः) समस्त प्रजाओं के भीतर (अपूर्वम्) अपूर्व, अद्भुत, भीतरी इन्द्रिय (यक्षम् ) सब अन्य इन्द्रियों की सुसंगति, सुव्यवस्था करने वाला है ( तत् ) वह (मे मनः शिवस कल्पम् अस्तु) मेरा मन शुभ संकल्प वाला हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मनः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    अपूर्व मन

    पदार्थ

    हे सर्वान्तर्यामिन् परमेश्वर ! (येन) = जिस (मनीषिणः) = मन के विजेता विद्वान् लोग यज्ञे मन से (अपसः) = कर्म करनेवाले, (धीराः) = धैर्ययुक्त यज्ञ में, श्रेष्ठतम कर्मों में और (विदथेषु) = संघर्षों में, युद्धादि में (कर्माणि) = कर्मों को (कृण्वन्ति) = करते हैं, (यत्) = जो (अपूर्वम्) = अपूर्व सामर्थ्ययुक्त, विलक्षण, अद्भुत, (यक्षम्) = अत्यन्त पूजनीय (प्रजानां अन्तः ओतम्) = यह मन प्रजाओं के अन्दर है। शरीर के ठीक मध्य में इसकी स्थिति है। यह कहलाता ही 'अन्तःकरण' है। पञ्चकोशात्मक शरीर में दो कोश एक ओर हैं और दो कोश दूसरी ओर और ठीक मध्य में है यह 'मनोमयकोश' । ६. (तत् मे मन:) = वह मेरा मन (शिवसंकल्पम् अस्तु) = शुभ संकल्पोंवाला हो। जब यह विकल्पात्मक होता है तब निर्बल होकर मृत्यु का कारण बनता है, संकल्पात्मक होकर सशक्त होता है और जीवन का हेतु बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मन की अद्भुत शक्ति को पहचानें और उसे वश में करके शिवसंकल्पात्मक बनाकर कल्याण का साधन करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी परमेश्वराची उपासना करावी. उत्तम विचार, विद्या, सत्संग यांनी आपल्या अंतःकरणाला अधर्माचरणापासून निवृत्त करून धर्माचरणात प्रवृत्त करावे.

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे परमेश्‍वर अथवा हे विद्वान, (येन) ज्या (अपसः) सदा धर्मनिष्ठ कर्मनिष्ठ (मनीषिणः) मनाचे दमन करणारे (धीराः) आणि ध्यान करणारे बुद्धिमानजन (यज्ञ) अग्निहोत्र, धार्मिक व्यवहार आणि योगाभ्यासाचे तसेच (विदथेष) विज्ञानक्षेत्रात अथवा युद्धकार्यांमधे (कर्माणि) जे अत्यंत इष्ट कर्म (कृण्वन्ति) करतात (ते हे परमेश्‍वर, आपल्या संगतीमुळे करतात) हे परमेश्‍वर, (यत्) जे मन (अपूर्वम्) सर्वोत्तम गुण, कर्म स्वभावाचे असून (प्रजानाम्) प्राणिमात्राच्या (अन्तः) हृदयात (यज्ञम्) पूज्य अथवा एकीभूत होत आहे, (तत्) ते (मे) माझे (मनः) मनन, विचार करण्याचे मन (शिवसंङ्कल्पम्) धार्मिक विचारांचे (अस्तु) व्हावे. ॥2॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी परमेश्‍वराची उपासना करीत, सुंदर विचार, विद्या आणि सत्संगाद्वारे आपल्या अंतःकरणाला अधर्माचरणापासून निवृत्त करावे आणि त्याला धर्माचरणाकडे प्रवृत्त करावे. ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Whereby the virtuous, thoughtful and wise persons, in religious performances, learned assemblies and battles, perform their duties. The peerless spirit stored in living creatures, may that, my mind be moved by auspicious resolve.

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    Meaning

    The ‘Yaksha mind’, volitional faculty, by which men of action, thought and constancy organise and perform all acts in yajnic programmes of life, the matchless faculty, present in all people, may that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.

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    Translation

    Whereby the wise and talented ones perform their duties in assemblies and the active ones at sacrifices; which is the foremost motivating spirit embedded within all the creatures, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)

    Notes

    Apasaḥ, अपस्विन: कर्मवंत:, active persons. Maniṣiṇaḥ, wise; talented. Vidatheşu, in assemblies; in congregations. Yakşam, sacrificial spirit. Apūrvam, foremost; extra-ordi nary.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে পরমেশ্বর বা বিদ্বান্ ! যখন আপনার সঙ্গ দ্বারা (য়েন) যে (অপসঃ) সদা কর্ম্ম ধর্মনিষ্ঠ (মনীষিণঃ) মনের দমনকারী (ধীরাঃ) ধ্যানকারী বুদ্ধিমান লোকেরা (য়জ্ঞে) অগ্নিহোত্রাদি বা ধর্মসংযুক্ত ব্যবহার বা যোগযজ্ঞে এবং (বিদথেষু) বিজ্ঞান-সম্পর্কীয় এবং যুদ্ধাদি ব্যবহারে (কর্মাণি) অত্যন্ত ইষ্ট কর্ম্মকে (কৃণ্বন্তি) করে, (য়ৎ) যাহা (অপূর্বম্) সর্বোত্তম গুণ, কর্ম, স্বভাবযুক্ত (প্রজানাম্) প্রাণিমাত্রের (অন্তঃ) হৃদয়ে (য়ক্ষম্) পূজনীয় বা সঙ্গত একীভূত হইতেছে (তৎ) সেই (মে) আমার (মনঃ) মনন-বিচার-করণ রূপ মন (শিবসঙ্কল্পম্) ধর্মাচারী (অস্তু) হউক ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, পরমেশ্বরের উপাসনা সুন্দর বিচার, বিদ্যা ও সৎসঙ্গ দ্বারা স্বীয় অন্তঃকরণকে অধর্মাচরণ হইতে নিবৃত্ত করিয়া ধর্মের আচরণে প্রবৃত্ত করুক ॥ ২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়েন॒ কর্মা॑ণ্য॒পসো॑ মনী॒ষিণো॑ য়॒জ্ঞে কৃ॒ণ্বন্তি॑ বি॒দথে॑ষু॒ ধীরাঃ॑ ।
    য়দ॑পূ॒র্বং য়॒ক্ষম॒ন্তঃ প্র॒জানাং॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়েন কর্মাণীত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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