यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 5
ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः
देवता - मनो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
289
यस्मि॒न्नृचः॒ साम॒ यजू॑षि॒ यस्मि॒न् प्रति॑ष्ठिता रथना॒भावि॑वा॒राः।यस्मिँ॑श्चि॒त्तꣳ सर्व॒मोतं॑ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥५॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न्। ऋचः॑। साम॑। यजू॑षि। यस्मि॑न्। प्रति॑ष्ठि॑ता। प्रति॑स्थ॒तेति॒ प्रति॑ऽस्थिता। र॒थ॒ना॒भावि॒वेति॑ रथना॒भौऽइ॑व। अ॒राः ॥ यस्मि॑न्। चि॒त्तम्। सर्व॑म्। ओत॒मित्याऽउ॑तम्। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्नृचः साम यजूँषि यस्मिन्प्रतिष्ठिता रथनाभविवाराः। यस्मिँश्चित्तँ सर्वमोतम्प्रजानान्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
स्वर रहित पद पाठ
यस्मिन्। ऋचः। साम। यजूषि। यस्मिन्। प्रतिष्ठिता। प्रतिस्थतेति प्रतिऽस्थिता। रथनाभाविवेति रथनाभौऽइव। अराः॥ यस्मिन्। चित्तम्। सर्वम्। ओतमित्याऽउतम्। प्रजानामिति प्रऽजानाम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
रथनाभाविवारा यस्मिन् मनसि ऋचः साम यजूंषि प्रतिष्ठिता, यस्मिन्नथर्वाणः प्रतिष्ठिता भवन्ति, यस्मिन् प्रजानां सर्व चित्तमोतमस्ति, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥५॥
पदार्थः
(यस्मिन्) मनसि (ऋचः) ऋग्वेदः (साम) सामवेदः (यजूंषि) यजुर्वेदः (यस्मिन्) (प्रतिष्ठिता) प्रतिष्ठितानि (रथनाभाविव) यथा रथस्य रथचक्रस्य मध्यमे काष्ठे सर्वेऽवयवा लग्ना भवन्ति तथा (अराः) रथचक्रावयवाः (यस्मिन्) (चित्तम्) सर्वपदार्थविषयिज्ञानम् (सर्वम्) समग्रम् (ओतम्) सूत्रे मणिगणा इव प्रोतम् (प्रजानाम्) (तत्) (मे) मम (मनः) (शिवसङ्कल्पम्) शिवः कल्याणकरो वेदादिसत्यशास्त्रप्रचारसङ्कल्पो यस्मिँस्तत् (अस्तु) भवतु॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे मनुष्याः! युष्माभिर्यस्य स्वास्थ्य एव वेदादिपठनपाठनव्यवहारो घटते तत् मन एव वेदादिविद्याधारं यत्र सर्वेषां व्यवहारणां ज्ञानं सञ्चितं भवति, तदन्तःकरणं विद्याधर्माचरणेन पवित्रं संपादनीयम्॥५॥
विषयः
ईश्वरविषयः
व्याख्यानम्
( यस्मिन्नृचः साम यजूंषि ) हे भगवन् कृपानिधे! यस्मिन्मनसि ऋचः सामानि यजूंषि च प्रतिष्ठितानि भवन्ति, [यस्मिन् प्रतिष्ठिता] यस्मिन् यथार्थमोक्षविद्या च प्रतिष्ठिता भवति, ( यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम् ) यस्मिंश्च प्रजानां चित्तं स्मरणात्मकं सर्वमोतमस्ति सूत्रे मणिगणवत्प्रोतमस्ति। कस्यां क इव? [रथनाभाविवाराः] रथनाभौ अरा इव। [तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु] तन्मे मम मनो भवत्कृपया शिवसंकल्पं कल्याणप्रियं सत्यार्थप्रकाशं चास्तु, येन वेदानां सत्यार्थः प्रकाश्येत।
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
(यस्मिन्) जिस मन में (रथनाभाविव, अराः) जैसे रथ के पहिये के बीच के काष्ठ में अरा लगे होते हैं, वैसे (ऋचः) ऋग्वेद (साम) सामवेद (यजूंषि) यजुर्वेद (प्रतिष्ठिता) सब ओर से स्थित और (यस्मिन्) जिसमें अथर्ववेद स्थित है, (यस्मिन्) जिसमें (प्रजानाम्) प्राणियों का (सर्वम्) समग्र (चित्तम्) सर्व पदार्थसम्बन्धी ज्ञान (ओतम्) सूत में मणियों के समान संयुक्त है, (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) मन (शिवसङ्कल्पम्) कल्याणकारी वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचाररूप सङ्कल्प वाला (अस्तु) हो॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे मनुष्यो! तुम लोगों को चाहिये कि जिस मन के स्वस्थ रहने में ही वेदादि विद्याओं का आधार और जिसमें सब व्यवहारों का ज्ञान एकत्र होता है, उस अन्तःकरण को विद्या और धर्म के आचरण से पवित्र करो॥५॥
पदार्थ
पदार्थ = ( रथनाभौ अराः इव ) = रथ के चक्र की नाभि में जैसे अरे लगे रहते हैं, इसी प्रकार ( यस्मिन् ) = जिस मन में ( ऋचः ) = ऋग्वेद, ( साम ) = सामवेद, ( यजूंषि ) = यजुर्वेद, ( प्रतिष्ठिताः ) = सब ओर से स्थित हैं अर्थात् चार वेदों के मन्त्र विद्वान् के मन में संस्कार रूप से स्थित रहते हैं, ( यस्मिन् ) = जिस मन में ( प्रजानाम् ) = सब प्राणियों के ( सर्वम् चित्तम् ) = सब पदार्थों के ज्ञान ( ओतम् ) = सूत्र में मणियों के समान ओत -प्रोत हैं, अर्थात् पिरोये हुए हैं ( तत् मे मनः ) = वह मेरा मन ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) = शुभ वेद विचार और परमात्मा के ध्यानादिकों के सङ्कल्पवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जिज्ञासु पुरुषो! हम सब लोगों को योग्य है कि जिस मन के स्वस्थ और शुद्ध रहने से, सत्संग, वेदविचार और ईश्वरध्यानादि हो सकते हैं, अशुद्ध अस्वस्थ मन से नहीं ऐसे मन की अशुद्ध भावना को हटाकर वेदविचार और ईश्वर - ध्यान में लगावें, जिससे हमारा कल्याण हो ।
विषय
ईश्वरविषयः
व्याख्यान
( यस्मिन्नृचः ) हे भगवन् कृपानिधे! ( ऋचः ) ऋग्वेद ( साम ) सामवेद ( यजूँषि ) यजुर्वेद और इन तीनों के अन्तर्गत होने से अथर्ववेद भी, ये सब जिसमें स्थित होते हैं तथा ( यस्मिन् प्रतिष्ठिता ) जिसमें मोक्षविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और सत्यासत्य का प्रकाश होता है, ( यस्मिंश्चित्तं सर्वमोतं प्रजानाम् ) जिसमें सब प्रजा का चित्त, जो स्मरण करने की वृत्ति है, सो सब गँठी हुई है, जैसे माला के मणिये सूत्र में गँठे हुए होते हैं, और ( रथनाभाविवाराः ) जैसे रथ के पहिये के बीच भाग में आरे लगे होते हैं कि उस काष्ठ में जैसे अन्य काष्ठ लगे रहते हैं, ( तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु ) ऐसा जो मेरा मन है सो आपकी कृपा से शुद्ध हो तथा कल्याण जो मोक्ष और सत्यधर्म का अनुष्ठान तथा असत्य के परित्याग करने का संकल्प जो इच्छा है, इससे युक्त सदा हो। जिस मन से हम लोगों को आपके किये वेदों के सत्य अर्थ का यथावत् प्रकाश हो।
विषय
शिवसंकल्पसूक्त ।
भावार्थ
( रथनाभौ अराः इव) रथ के चक्र की नाभि में जिस प्रकार अरे लगे होते हैं उसी प्रकार ( यस्मिन् ) जिस मन में (ऋचः) ऋग्वेद के मन्त्र, (साम) सामवेद और (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र ( प्रतिष्ठिताः) स्थित हैं अर्थात् वेद आदि नाना विज्ञान पढ़ लेने पर स्मृति रूप से जिसमें रहते हैं और ( यस्मिन् ) जिसमें ( प्रजानाम् ) प्रजाओं, प्राणियों के ( सर्वम् चित्तम् ) समस्त चित्त, समस्त पदार्थों का ज्ञान भी ( ओतम् ) सूत्र में मणियों के समान और पट में सूत्रों के समान ओत प्रोत अर्थात् पिरोये हुए हैं (तत्) वह मेरा (मनः) मननशील अन्तःकरण और उससे युक्त आत्मा (शिवसंकल्पम् अस्तु ) शुभ वेद तथा परमेश्वर आदि के ज्ञान, पठन मनन आदि उत्तम विचार परम्परा से युक्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
ऋग्-यजु-साम का आधार मन
पदार्थ
१. (तत् मे मनः) = वह मेरा मन (शिवसंकल्पम्) = शुभ संकल्पवाला (अस्तु) = हो, (यस्मिन्) = जिसमें और (यस्मिन्) = जिससे ही (ऋच:) = सम्पूर्ण विज्ञान [ऋग्वेद - विज्ञानवेद] साम-उपासना व (यजूंषि) = यज्ञात्मक कर्म में (प्रतिष्ठिता:) = प्रतिष्ठित हैं (इव) = जैसे (रथनाभौ) = रथ के पहिये की नाभि में अरा:- अरे प्रतिष्ठित होते हैं। नाभि के हिलते ही सब अरे हिल जाते हैं, इसी प्रकार मानसविकार होते ही सारा विज्ञान, सारी उपासना व सारा कर्मकाण्ड समाप्त हो जाता है। वैज्ञानिकों ने प्रकृति तथ्यों का निरीक्षण पूर्ण मनोयोग से करना होता है। उपासना तो चलती ही तब है जब मन से अन्य सब विषयों को निकाल दिया जाए। सब यज्ञ मन से ही होते है। क्या वेदाधिगम= [वेद पढ़ना] और क्या वैदिक कर्मकाण्ड- ये सब मन के न होने पर नहीं चलते। मनोनिरोध करके मनुष्य वैज्ञानिक तथ्यों का विचार कर पाता है, मनोनिरोध का ही नाम उपासना हो जाता है [ध्यानं निर्विषयं मनः], मन की एकाग्रता से किया गया कर्म सुन्दर होता है। २. यह मन वह है (यस्मिन्) = जिसमें प्रजानाम् प्रजाओं का (सर्वम् चित्तम्) = सारा चित्त, सम्पूर्ण स्मरण (ओतम्) = ओत-प्रोत है, व्याप्त है। जब यह इन्द्रिय द्वारों से बहार जाकर संसार के विषयों के साथ रम जाता है तब मनुष्य को ('कोऽहं कुत आयात:') = मैं कौन हूँ, यहाँ क्यों आया हूँ ? यह सब भूल जाता है। आत्मविस्मरण से बचने करना अत्यन्त आवश्यक है। ('योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः')चित्तवृत्ति- के लिए मन को वश में निरोध ही योग है और ('तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्') = तभी द्रष्टा स्वरूप में स्थित होता है, अपने को पहचानता है, भूलता नहीं।
भावार्थ
भावार्थ - मन ही विज्ञान, उपासना व कर्म का आधार है। आत्मस्मृति का मूल मन ही है। वह एकाग्र रहा तो मनुष्य अपने स्वरूप को देख पाता है।
मराठी (3)
भावार्थ
हे माणसांनो ! रथामध्ये आरे असल्याप्रमाणे स्वस्थ मनात ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद स्थित आहेत. ज्या मनात पदार्थांचे व प्राण्यांचे व्यावहारिक ज्ञान धाग्यात मणी गुंफल्याप्रमाणे स्थित आहे ते मन विद्या व धर्म यांद्वारे पवित्र करा.
विषय
पुन्हा तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (रथनाभाविव, अराः) जसे रथाच्या चाकाच्या मधल्या लाकडात (आरी) चाकाच्या जुळलेल्या असतात, तद्वत (यस्मिन्) ज्या मनामधे (ऋचः) ऋग्वेद (साम) सामवेद (यजूंषि) आणि यजुर्वेद (प्रतिष्ठिता) सर्वतः स्थित आहेत आणि (यस्मिन्) ज्यात अथर्ववेद स्थित आहे, तसेच (यस्मिन्) ज्यामधे (प्रजानाम्) प्राण्यांचे (सर्वम्) समस्त (चित्तम्) सर्व पदार्थविषयक ज्ञान (ओतम्) सूत्रात (धाग्यात) मणी ओवल्याप्रमाणे संयुक्त आहेत, (तत्) ते (मे) माझे (मनः) मन (शिवसंकल्पम्) कल्याणकारी वेद आदी सत्यशास्त्रांचे प्रसार करण्याचा संकल्प करणारे (अस्तु) असावे. ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यानो, तुम्ही प्रसन्न व सावध मनाने वेदादी विद्येत सांगितलेला आचार करा. सर्व आणि ज्या मनात सर्व व्यवहारांचे ज्ञान सामावलेले आहे, त्या अंतःकरणाला तुम्ही विद्या आणि धर्माप्रमाणे आचरण यांद्वारे पवित्र करा. ॥5॥
व्याख्यान
भाषार्थ : (य आत्मदा:.) जो परमेश्वर आपल्या कृपेनेच आपल्या आत्म्याचे विज्ञान देणारा आहे. जो सर्व विद्या व सत्य सुख देणारा आहे. ज्याची उपासना सर्व विद्वान लोक करत आलेले आहेत. ज्याचे अनुशासन वेदोक्त शिक्षण असून, त्याचा स्वीकार सर्व शिष्ट लोक करतात. ज्याचा आश्रय घेणे मोक्षसुखाचे कारण आहे व ज्याची अवकृपाच जन्म-मरणरूपी दु:ख देणारी आहे. त्या ईश्वराचा उपदेश-सत्यविद्या, सत्यधर्म व सत्यमोक्ष यांना न मानता जो आपल्या कपोल-कल्पनेने अर्थात दुष्ट इच्छेने वाईट आचरण करून वेदाविरुद्ध वागतो. त्याच्यावर ईश्वराची अकृपा होते. तेच सर्व दु:खांचे कारण आहे व ज्याचे आज्ञापालनच सर्व सुखाचे मूळ आहे. (कस्मै.) जो सुखस्वरूप असून, सर्व प्रजेचा पती आहे, त्या परमेश्वराच्या प्राप्तीसाठी सत्यप्रेम भक्तिरूपी साधनांनी आम्ही नित्य त्याला भजावे. ज्यामुळे आम्हाला कोणत्याही प्रकारचे दु:ख कधीही होता कामा नये. ॥५॥ (द्यौ. शा.) हे सर्वशक्तिमान भगवान! तुझ्या भक्ती व कृपेनेच ‘द्यौ’ सूर्य इत्यादी गोलांचा प्रकाश व विज्ञान सदैव आम्हाला सुखदायक ठरो व आकाश, पृथ्वी, जल, औषधी, वनस्पती, वट इत्यादी वृक्ष, जगातील सर्व विद्वान, वेदब्रह्म हे सर्व पदार्थ व याहूनही भिन्न असलेले जग आम्हाला सदैव सुख देवो. हे सर्व पदार्थ आम्हाला सदैव अनुकूल असावे, ज्यामुळे हे वेदभाष्य आम्ही सुखपूर्वक करू शकू. या प्रकारे विद्या, बुद्धी, विज्ञान, आरोग्य व उत्तम साह्य तुझ्या कृपेने शांतिपूर्वक प्राप्त व्हावे व आम्हाला व सर्व जगाला उत्तम गुण व सुखाचे दान दे. ॥६॥ (यतो य.) हे परमेश्वरा! तू ज्या ज्या देशात किंवा स्थानी जगाची रचना व पालन करण्यासाठी प्रयत्न केला जातो ते ते स्थान आमच्यासाठी भयरहित कर. अर्थात, कोणत्याही स्थानापासून आम्हाला भय वाटता कामा नये. (शन्न: कुरु) सर्व दिशांमध्ये राहणारे पशू व प्रजा आहे, त्यांच्यापासून आम्हाला भय वाटता कामा नये. त्यांना आम्ही सुखी करावे व त्यांनाही आमचे भय वाटता कामा नये व तुझ्या प्रजेत जी माणसे व पशू इत्यादी आहेत त्यांच्याकडून धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष तुझ्या कृपेनेच सिद्ध व्हावेत. ज्यामुळे माणसाला धर्म इत्यादी फळ सहजतेने प्राप्त व्हावेत. ॥७॥ (यस्मिन्नृच:) हे भगवान कृपानिधे (ऋच:) ऋग्वेद, (साम) सामवेद, (यजूँाषि) यजुर्वेद व तिन्हींच्या अंतर्गत असल्यामुळे अथर्ववेद हे सर्व ज्याच्यामध्ये स्थित आहेत व ज्याच्यामध्ये मोक्षविद्या अर्थात ब्रह्मविद्या व सत्यासत्याचा प्रकाश असतो (यस्मिँश्वि.) ज्यात सर्व प्रजेचे चित्त स्मरण करण्याची वृत्ती आहे. जसे माळेमध्ये मणी सूत्रात (दोऱ्यात) ओवलेले असतात व जसे रथाच्या चक्राच्या मध्यभागी आरे असतात त्या काष्ठात जसे अन्य काष्ठ लावलेले असतात, तशा त्या सर्व गठित आहेत. असे माझे मन तुझ्या कृपेने शुद्ध व्हावे व मोक्ष व सत्यधर्माचे अनुष्ठान करून कल्याणाची इच्छा आणि असत्याचा परित्याग करण्याचा संकल्प पूर्ण व्हावा. त्या मनामुळे तुझ्या वेदाचे सत्य अर्थ आम्हाला कळावेत. ॥८॥ हे सर्वविद्यामय सर्वार्थवित् जगदीश्वरा! तू आमच्यावर कृपा कर. ज्यामुळे आम्ही सदैव विघ्नापासून दूर राहावे व तुझ्या वेदांचा सत्य अर्थ विस्तारपूर्वक करून जगात कीर्ती वाढवावी. हे भाष्य पाहून वेदानुसार सत्याचे अनुष्ठान करून आम्ही सदैव श्रेष्ठ गुण धारण करावेत, त्यासाठी आम्ही प्रेमाने तुझी प्रार्थना करतो ती तू ताबडतोब ऐक. ज्यामुळे सर्वांवर उपकार करणारे वेदभाष्याचे अनुष्ठान योग्य रीतीने सिद्ध व्हावे.
इंग्लिश (3)
Meaning
Wherein the Riches, Samans, Yajur-verses and the Atharva Veda, like spokes within a carts nave, are included, and all the knowledge of human beings is in woven, may that, my mind, be actuated with the noble resolve of propagating the Vedas.
Meaning
The mind in which are woven Riks, hymns of knowledge, Yajus, hymns of application, and Samans, hymns of celebration and devotion (and the hymns of divinity), in which they are inter-fixed like spokes in the nave of a wheel, in which the Chitta, memory and unconscious of all the people, is inter-woven, may that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.
Translation
Wherein the Rks (praise verses), the Samans (lyrics), and the Yajuhs (sacrificial formulae) are well placed like spokes in the nave of a wheel; wherein like a warf the thought of all the creatures is woven, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)
Notes
Rathanabhau arāḥ iva, just as the spokes are fixed in the nave of the wheel of a chariot. Otam, inwoven; woven like a warf. Also, निक्षिप्तं, placed; fixed.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- (য়স্মিন্) যে মনে (রথনাভাবিব, অরাঃ) যেমন রথের চাকার মধ্যেকার কাষ্ঠে অরা লাগানো থাকে তদ্রূপ (ঋচঃ) ঋগ্বেদ (সাম) সামবেদ (য়জুংষি) যজুর্বেদ (প্রতিষ্ঠিতা) সকল দিক্ দিয়া স্থিত এবং (য়স্মিন্) যাহাতে অথর্ববেদ স্থিত (য়স্মিন্) যন্মধ্যে (প্রজানাম্) প্রাণিদিগের (সর্বম্) সমগ্র (চিত্তম্) সর্বপদার্থ সম্পর্কীয় জ্ঞান (ওতম্) সূত্রে মণিগুলির সমান সংযুক্ত (তৎ) সেই (মে) আমার (মনঃ) মন (শিবসঙ্কল্পম্) কল্যাণকারী বেদাদি সত্যশাস্ত্রের প্রচাররূপ সঙ্কল্পযুক্ত (অস্তু) হউক ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের উচিত, যে মনের সুস্থ থাকলেই বেদাদি বিদ্যাগুলির আধার এবং যাহাতে সকল ব্যবহারের জ্ঞান একত্র হয়, সেই অন্তঃকরণকে বিদ্যা ও ধর্মের আচরণ দ্বারা পবিত্র কর ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়স্মি॒ন্নৃচঃ॒ সাম॒ য়জূ॑ᳬंষি॒ য়স্মি॒ন্ প্রতি॑ষ্ঠিতা রথনা॒ভাবি॑বা॒রাঃ ।
য়স্মিঁ॑শ্চি॒ত্তꣳ সর্ব॒মোতং॑ প্র॒জানাং॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়স্মিন্নিত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবত স্বরঃ ॥
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