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यजुर्वेद अध्याय - 34

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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 31
    ऋषिः - हिरण्यस्तूप ऋषिः देवता - सूर्य्यो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    211

    आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च।हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना दे॒वो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न्॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। कृ॒ष्णेन॑। रज॑सा। वर्त्त॑मानः। नि॒वे॒शय॒न्निति॑ निऽवे॒शय॑न्। अ॒मृत॑म्। मर्त्य॑म्। च॒ ॥ हि॒र॒ण्यये॑न। स॒वि॒ता। रथे॑न। आ। दे॒वः। या॒ति॒। भुव॑नानि। पश्य॑न् ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ कृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्त्यञ्च । हिरण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। कृष्णेन। रजसा। वर्त्तमानः। निवेशयन्निति निऽवेशयन्। अमृतम्। मर्त्यम्। च॥ हिरण्ययेन। सविता। रथेन। आ। देवः। याति। भुवनानि। पश्यन्॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 31
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्युता किं साध्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं य आकृष्णेन रजसा सह वर्त्तमानः सततममृतं मर्त्यञ्च निवेशयन् हिरण्ययेन रथेन सविता देवो विद्युद् भुवनानि याति, तं पश्यन् सन् संप्रयुङ्ग्धि॥३१॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (कृष्णेन) कर्षितेन (रजसा) लोकसमूहेन सह (वर्त्तमानः) (निवेशयन्) नित्यं प्रवेशयन् (अमृतम्) नाशरहितं कारणम् (मर्त्यम्) नाशसहितं कार्य्यम् (च) (हिरण्ययेन) तेजोमयेन (सविता) ऐश्वर्यप्रदः (रथेन) रमणीयेन स्वरूपेण (आ) (देवः) देदीप्यमानः (याति) प्राप्नोति (भुवनानि) भवनाधिकरणानि वस्तूनि (पश्यन्) संप्रेक्षमाणः॥३१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः! या विद्युत्कार्य्यं कारणं सम्प्रकाश्य सर्वत्राऽभिव्याप्ता तेजोमयी सद्योगामिनी सर्वाकर्षिका वर्त्तते, तां प्रेक्षमाणाः सन्तः संप्रयुज्याऽभीष्टानि सद्यो यात॥३१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्युत् से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन्! आप जो (आ, कृष्णेन) आकर्षित हुए (रजसा) लोकसमूह के साथ (वर्त्तमानः) निरन्तर (अमृतम्) नाशरहित कारण (च) और (मर्त्यम्) नाशसहित कार्य्य को (निवेशयन्) अपनी-अपनी कक्षा में स्थित करता हु्आ (हिरण्ययेन) तेजःस्वरूप (रथेन) रमणीयस्वरूप के सहित (सविता) ऐश्वर्य का दाता (देवः) देदीप्यमान विद्युत्रूप अग्नि (भुवनानि) संसारस्थ वस्तुओं को (याति) प्राप्त होता है, उसको (पश्यन्) देखते हुए सम्यक् प्रयुक्त कीजिये॥३१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो! जो बिजली कार्य और कारण को सम्यक् प्रकाशित कर सर्वत्र अभिव्याप्त तेजस्वरूप शीघ्रगामिनी सबका आकर्षण करनेवाली है, उसको देखते हुए सम्प्रयोग में अभीष्ट स्थानों को शीघ्र जाया करो॥३१॥

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    विषय

    विद्वानों और नायक राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो अ० ३३ । ४३ ॥

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    विषय

    सूर्य का पालकत्व Looking after by the sun

    पदार्थ

    (सविता देवः) = सबका प्रेरक दिव्य गुणोंवाला सूर्य आचारों ओर (कृष्णेन) = अपनी ओर आकृष्ट (रजसा) = लोकसमूह के साथ (वर्त्तमान:) = विद्यमान होता हुआ (अमृतम्) = अमर आत्मतत्त्व को (मर्त्यं च) = और इस मरणधर्मा शरीर को (निवेशयन्) = विशेषरूप से स्वस्थ करता हुआ (हिरण्ययेन रथेन) = ज्योतिर्मय, सुनहरे रथ से (भुवनानि पश्यन्) = सब लोकों को देखता हुआ (याति) = चल रहा है। सूर्य के आकर्षण से कितने ही पिण्ड सूर्य के चारों ओर अपने मार्ग पर आक्रमण कर रहे हैं। इन सब पिण्डों के साथ गति करता हुआ यह सूर्य एक सौरलोक कहलाता है। यह सारा सौरलोक प्रति सैकिण्ड बारह मील की गति से अन्तरिक्ष में आगे और आगे चल रहा है [याति] । सूर्य का रथ हिरण्यय है। चमकने से यह हिरण्यय कहलाता है और इसकी किरणों में हिरण्य है ही। पिछले मन्त्रों में इसे 'हिरण्यपाणि' व 'हिरण्यहस्त' कहा था। यह अपने इस हिरण्य से सब लोकों का पालन करता है [पश्यन्=Looking after] । शरीर व मन के स्वास्थ्य का यह कारण बनता है। यह सूर्य, मर्त्य व अमृत, क्षर व अक्षर, शरीर व मन दोनों को ही स्वस्थ करता है [निवेशयन्] । दोनों को अपने स्थान में [स्व] स्थित [स्थ] करता है। सूर्याभिभुख बैठने से शरीर ही नहीं अपितु मन भी स्वस्थ बनता है। एवं यह सूर्य अपने तेज से हमारे रोगों व मलों को नष्ट करता हुआ हमारा रक्षण करता है, इसी से अगले मन्त्र में यह 'पिता' कहा गया है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हिरण्ययरथवाले सूर्य का सेवन करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' ऋषि हिरण्य का धारण करके 'शरीर व मन दोनों के दृष्टिकोण से स्वस्थ बनता है।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जी विद्युत कार्य कारणाने सम्यक् रीतीने प्रकाशित होऊन सर्वत्र व्याप्त असते ती तेजस्वी, शीघ्रगामिनी आणि सर्वांना आकर्षित करणारी असते. तिला योग्य तऱ्हेने प्रयुक्त करून इष्ट स्थानी येणे-जाणे करा.

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    विषय

    विद्युतद्वारे कोणती कार्यें पूर्ण केली पाहिजेत, याविषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान (वैज्ञानिक) महोदय, जो (देवः) देदीप्यमान विद्युतरूप अग्नी (आ, खृष्णेन) आकर्षित (रजसा) लोक समूहासह (ग्रह-नक्षत्रादी ज्या आकर्षणशक्तीने विद्यमान आहेत, ती विद्युतअग्नी. सर्वांना एकत्रित ठेवतो) तो अग्नी (वर्तमानः) निरंतर वर्तमान म्हणजे अस्तित्वात असतो (अमृतम्) तो कारणरूपेण अविनाशी असून (च) आणि (मर्त्यम्) नाशवान कार्याला (निवेशयन्) आपापल्या कक्षेत स्थापित करतो (विद्युतशक्ती कारणरूप असल्यामुळे नित्य आश्‍वर आहे, पण ग्रह-नक्षत्रादी, पृथ्वी कार्य असल्यामुळे अनित्य व नश्‍वर आहेत. तो विद्युदग्नी त्या ग्रहादींना कक्षेत गतिमान करतो, हा आशय आहे) तो अग्नी (हिरण्ययेन) आपल्या तेज स्वरूपाने तसेच (रथेन) रमणीय स्वरूपाने (सविता) ऐश्‍वर्यदाता आहे. असा तो अग्नीदेव (भुवनानि) संसारस्थ पदार्थांना (याति) संचारित असतो. त्या शक्तीचे, हे विद्वान, आपण (पश्यन्) अध्ययन, निरीक्षण करीत आपण त्याचा सम्यक् प्रकारे उपयोग करा. ॥31।

    भावार्थ

    भावार्थ - हे मनुष्यानो, जो विद्युतरूप अग्नी कार्य व कारण यांना सम्यक प्रकारे प्रकाशित करतो, सर्व अभिव्याप्त असून तेजस्वरूप, शीघ्रगामी आहे आणि सर्व पदार्थाना आकर्षित करणारा आहे, त्याचे निरीक्षण-परीक्षण करीत त्या शक्तीचा उपयोग करा पाहिजे आणि आवश्यक त्या स्थानी त्या शक्तीला नेले पाहिजे. ॥31॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned persons, with full observation, use full well the lustrous electricity, which resides in the solar system, standing through attraction, fixes in its respective sphere the immortal cause and the mortal effect, and with its blazing, beautiful nature, grants prosperity, and pervades material objects.

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    Meaning

    Revolving with its own force of gravity, moved round and round by the force of cosmic dynamics, lighting the constant and the changing forms of nature, Savita, the brilliant sun, goes on and on by his golden chariot, watching the worlds of the universe.

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    Translation

    The refulgent sun, springing through the obscure regions, arousing mortal and immortal, beholding the several worlds, comes as if mounted on a golden chariot. (1)

    Notes

    Repeated from XXXIII. 43.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ বিদ্যুতা কিং সাধ্যমিত্যাহ ॥
    এখন বিদ্যুৎ দ্বারা কী সিদ্ধ করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বন্ ! আপনি যে (আ, কৃষ্ণেন) আকর্ষিত (রজসা) লোকসমূহের সঙ্গে (বর্ত্তমানঃ) বর্ত্তমান নিরন্তর (অমৃতম্) নাশরহিত কারণ (চ) এবং (মর্ত্যম্) নাশসহিত কার্য্যকে (নিবেশয়ন্) স্ব স্ব কক্ষে স্থিত করিয়া (হিরণ্যয়েন) তেজঃ স্বরূপ (রথেন) রমণীয় স্বরূপের সহিত (সবিতা) ঐশ্বর্য্যের দাতা (দেবঃ) দেদীপ্যমান বিদ্যুৎরূপ অগ্নি (ভুবনানি) সংসারস্থ বস্তুগুলিকে (য়াতি) প্রাপ্ত হয় তাহাকে (পশ্যন্) দেখিয়া সম্যক্ প্রযুক্ত করুন ॥ ৩১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে বিদ্যুৎ কার্য্য ও কারণকে সম্যক্ প্রকাশিত করিয়া সর্বত্র অভিব্যাপ্ত তেজস্বরূপ শীঘ্রগামিনী সকলকে আকর্ষণ করে, তাহাকে দেখিয়া সম্প্রয়োগে অভীষ্ট স্থানগুলিতে শীঘ্র গমন কর ॥ ৩১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    আ কৃ॒ষ্ণেন॒ রজ॑সা॒ বর্ত্ত॑মানো নিবে॒শয়॑ন্ন॒মৃতং॒ মর্ত্যং॑ চ ।
    হি॒র॒ণ্যয়ে॑ন সবি॒তা রথে॒না দে॒বো য়া॑তি॒ ভুব॑নানি॒ পশ্য॑ন্ ॥ ৩১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    আ কৃষ্ণেনেত্যস্য হিরণ্যস্তূপ ঋষিঃ । সূর্য়্যো দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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