यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 4
ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः
देवता - मनो देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
271
येने॒दं भू॒तं भुव॑नं भवि॒ष्यत् परि॑गृहीतम॒मृते॑न॒ सर्व॑म्।येन॑ य॒ज्ञस्ता॒यते॑ स॒प्तहो॑ता॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥४॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑। इ॒दम्। भू॒तम्। भुव॑नम्। भ॒वि॒ष्यत्। परि॑गृहीत॒मिति॑ परि॑ऽगृहीतम्। अ॒मृते॑न। सर्व॑म् ॥ येन॑। य॒ज्ञः। ता॒यते॑। स॒प्तहो॒तेति॑ स॒प्तऽहो॒ता। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
येनेदम्भूतम्भुवनम्भविष्यत्परिगृहीतममृतेन सर्वम्। येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥
स्वर रहित पद पाठ
येन। इदम्। भूतम्। भुवनम्। भविष्यत्। परिगृहीतमिति परिऽगृहीतम्। अमृतेन। सर्वम्॥ येन। यज्ञः। तायते। सप्तहोतेति सप्तऽहोता। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥४॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! येनामृतेन भूतं भुवनं भविष्यत् सर्वमिदं परिगृहीतं भवति, येन सप्तहोता यज्ञस्तायते, तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥४॥
पदार्थः
(येन) मनसा (इदम्) वस्तुजातम् (भूतम्) अतीतम् (भुवनम्) भवतीति भुवनम्। वर्त्तमानकालस्य सम्बन्धि। औणादिकः क्युः। (भविष्यत्) यदुत्पत्स्यमानं भावि (परिगृहीतम्) परितः सर्वतो गृहीतं ज्ञातम् (अमृतेन) नाशरहितेन परमात्मना सह युक्तेन (सर्वम्) समग्रम् (येन) (यज्ञः) अग्निष्टोमादिविज्ञानमयो व्यवहारो वा (तायते) तन्यते विस्तीर्य्यते (सप्तहोता) अग्निष्टोमेऽपि सप्तहोतारो भवन्ति (तत्) (मे) मम (मनः) योगयुक्तं चित्तम् (शिवसङ्कल्पम्) शिवो मोक्षरूपसङ्कल्पो यस्य तत् (अस्तु) भवतु॥४॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यच्चित्तं योगाभ्याससाधनोपसाधनसिद्धं भूतभविष्यद्वर्त्तमानज्ञं सर्वसृष्टिविज्ञातृ-कर्मोपासनाज्ञानसाधकं वर्त्तते, तत्सदैव कल्याणप्रियं कुरुत॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (येन) जिस (अमृतेन) नाशरहित परमात्मा के साथ युक्त होनेवाले मन से (भूतम्) व्यतीत हुआ (भुवनम्) वर्त्तमान काल सम्बन्धी और (भविष्यत्) होनेवाला (सर्वम्, इदम्) यह सब त्रिकालस्थ वस्तुमात्र (परिगृहीतम्) सब ओर से गृहीत होता अर्थात् जाना जाता है, (येन) जिससे (सप्तहोता) सात मनुष्य होता वा पांच प्राण, छठा जीवात्मा और अव्यक्त सातवां ये सात लेने-देनेवाले जिसमें हों, वह (यज्ञः) अग्निष्टोमादि वा विज्ञानरूप व्यवहार (तायते) विस्तृत किया जाता है, (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) योगयुक्त चित (शिवसङ्कल्पम्) मोक्षरूप सङ्कल्पवाला (अस्तु) होवे॥४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जो चित्त योगाभ्यास के साधन और उपसाधनों से सिद्ध हुआ भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान तीनों काल का ज्ञाता, सब सृष्टि का जाननेवाला, कर्म, उपासना और ज्ञान का साधक है, उसको सदा ही कल्याण में प्रिय करो॥४॥
पदार्थ
पदार्थ = ( येन अमृतेन ) = जिस अविनाशी आत्मा के साथ युक्त होनेवाले मन से ( भूतम् ) = व्यतीत हुआ ( भुवनम् ) = वर्त्तमान काल सम्बन्धी और ( भविष्यत् ) = आगे होनेवाला ( सर्वम् इदम् ) = यह सब त्रिकालस्थ वस्तुमात्र ( परिगृहीतम् ) = ग्रहण किया जाता, अर्थात् जाना जाता है । ( येन ) = जिससे ( सप्त होता ) = सात मनुष्य होता जिस यज्ञ में अथवा पाँच प्राण छठा जीवात्मा और सातवां अव्यक्त, ये सात जिसमें लेने देनेवाले हों, वह ( यज्ञः ) = अग्निष्टोमादि वा विज्ञान रूप व्यवहार ( तायते ) = विस्तृत किया जाता है ( तत् मे मन: ) = वह योगयुक्त मेरा चित्त ( शिवसङ्कल्पम् अस्तु ) = परमात्मा और मोक्ष विषयक सङ्कल्प करनेवाला हो।
भावार्थ
भावार्थ = हे मनुष्यो ! जो मन योगाभ्यास के साधनों से सिद्ध हुआ, भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान इन तीनों कालों का ज्ञाता, सब सृष्टि का जाननेवाला, कर्म उपासना और ज्ञान का साधन है, ऐसे मन को कल्याण में ही लगाना चाहिए ।
विषय
शिवसंकल्पसूक्त ।
भावार्थ
( येन ) जिसके द्वारा ( इदम् ) यह ( भूतम् ) अतीत, भूतकाल, ( भुवनम् ) वर्त्तमान काल और ( भविष्यत्) भविष्यत् काल के ( सर्वम् ) समस्त पदार्थ ( अमृतेन ) अमृत, नित्य आत्मा के साथ मिलकर ( हरिगृहीतम् ) जाने जाते हैं और (सप्तहोता) जैसे ब्रह्मा आदि सात ऋत्विजों से यज्ञ किया जाता है उसी प्रकार (येन) जिस अन्तःकरण द्वारा शिर में स्थित विषयों के ग्रहण करने वाले चक्षु आदि सात इन्द्रियों अथवा शरीर को धारण और जीवन देने वाले सात धातुओं से युक्त (यज्ञ:) आत्मा, देहरूप यज्ञ ( तायते ) सम्पादन किया जाता है (तत्) वह (मे मनः) मेरा मन (शिवसंकल्पम् ) शुभ संकल्प वाला (अस्तु) हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मनः । त्रिष्टुप् ।धैवतः ॥
विषय
सर्वग्राहक मन
पदार्थ
१. (तन्मे मनः) = वह मेरा मन (शिवसंकल्पम्) = शुभ संकल्पोंवाला (अस्तु) = हो, (येन अमृतेन) = जिस अमर मन से (इदम्) = यह (भूतम्) = भूतकाल की सब बात (भुवनम्) = वर्त्तमान की बात और (भविष्यत्) = आगे होनेवाली बातें (सवर्म्) = सब (परिगृहीतम्) = ग्रहण की जाती हैं। यह मन अमर है, आत्मा के साथ अगले अगले शरीर में जाता है। इसमें सब जन्म-जन्मान्तर के संस्कार निहित होते हैं, वर्त्तमान की बातें इसपर अपने संस्कार डाल रही हैं और आनेवाली बातों का इसपर प्रतिबिम्ब-सा पड़ जाता है तथा आगे होनेवाली सब कल्पनाओं का उद्गम इसी में है। एवं, यह मन भूत, भविष्य व वर्त्तमान तीनों का ही ग्रहण करनेवाला है । ३. यह मन वह है (येन) = जिससे (सप्तहोता) = सात होताओंवाला (यज्ञः) = यज्ञ तायते विस्तृत किया जाता है। ये सात होता शरीर के सात ऋषि हैं- ('कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्') = दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँख व मुख, ये सात ऋषि प्रत्येक शरीर में विद्यमान हैं ('सप्तऋषयः प्रतिहिताः शरीरे') । यह इस शरीर में स्थित होकर ज्ञानयज्ञ को चलाया करते हैं, परन्तु इनका यह ज्ञानयज्ञ मनोयोग के होने पर ही चलता है। मन के बिना ये सब अशक्त हैं। ये ज्योति हैं, तो मन इन ज्योतियों की भी ज्योति है। जिस समय साधक इस मन को वश में कर लेता है तब इस मन का जहाँ भी वह संयम करता है, झट उसी का ज्ञान कर लेता है। (भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्) = सूर्य में संयम करने से यह सम्पूर्ण भुवन का ज्ञान कर लेता है। पवित्र मन पर आगे आनेवाली घटनाओं का प्रतिबिम्ब पहले से ही पड़ जाता है। इस प्रकार वह मन 'भूत-भुवन भविष्यत्' सभी का ग्रहीता है और सम्पूर्ण ज्ञानयज्ञ को चलानेवाला है। यह शिवसंकल्प हुआ तो फिर कल्याण ही - कल्याण है।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने मन को बड़ा शुद्ध बनाएँ, जिससे हमारा ज्ञानयज्ञ बड़ी सुन्दरता से चले ।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे चित्त योगाभ्यासाची साधने व उपसाधने यांनी सिद्ध झालेले असते. भूत, भविष्य व वर्तमान या तीन काळांचे ज्ञाता असणारे व सर्व सृष्टीला जाणणारे, ज्ञान, तसेच कर्म व उपासना यांचे साधक असते ते चित्त सदैव कल्याणकारी बनावे.
विषय
पुनश्च, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (येन) ज्या (अमृतेन) अविनाशी परमात्म्याचा साथी असलेल्या मनाने (भूतम्) झालेले (भुवनम्) वर्तमानात असलेले आणि (भविष्यत्) पुढील काळात होणारे (सर्वम्), इदम्) या सर्व त्रिकालस्थ वस्तू (परिगृहीतम्) सर्वतः गृहीत होतात म्हणजे जाणल्या जातात (ते माझे मन शिवसंकल्पमय व्हावे) तसेच (येन) ज्या मनाद्वारे (सप्तहोता) सात मनुष्य अथवा पाच प्राण, सहावा जीवात्मा आणि अव्यक्त हा सातवा, हे सात देणारे, घेणारे ज्यामधे आहेत, आणि (यज्ञः) अग्निष्टोम आदी कार्यें अथवा विज्ञानरूप व्यवहार (तायते) विस्तारित केले जातात (तत्)ते (मे) माझे (मनः) योगयुक्त मन (शिवसंकल्पम्) मोक्षरूप संकल्प करणारे (अस्तु) व्हावे ॥4॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यानो, जे मन योगाभ्यासाच्या साधनांनी आणि उपसाधनांनी प्राप्त होणारे असून भूत, वर्तमान, भविष्य या तीन्ही काळांचा ज्ञाता आहे, सर्व सृष्टीला जाणणारे (म्हणजे जाणण्याचे साधन) असून कर्म, उपासना व ज्ञानाचा साधक आहे, तुम्ही त्या मनाला सदा कल्याणात रममाण करा. ॥4॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Whereby, coupled with immortal God, the past, present and future all are comprehended, whereby spreads sacrifice by Seven Hotas, may that, my mind, aim at salvation.
Meaning
The mind, immortal faculty by which all this that was, and is, and shall be is perceived and retained, and by which the seven-priest (five senses, feeling-will and understanding) yajna is planned and performed, may that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.
Translation
Wherewith the immortal one, all that ever existed, all that at present exists and all that will ever exist in future, is comprehended; wherewith the sacrifice with seven priests is spread, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)
Notes
Parigrhitam, is comprehended. Amṛtena, with the one that never dies; immortal. Bhūtain, bhuvanamn, bhavisyat, past, present and future. Yajñastāyate, the sacrifice is spread or performed. Saptahotā, attended by seven priests.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! (য়েন) যে (অমৃতেন) নাশরহিত পরমাত্মা সহ যুক্ত মন দ্বারা (ভূতম্) অতীত (ভুবনম্) বর্তমান কাল সম্পর্কীয় এবং (ভবিষ্যৎ) ভবিষ্যৎ (সর্বম্, ইদম্) ইহা সব ত্রিকালস্থ বস্তুমাত্র (পরিগৃহীতম্) সকল দিক দিয়া গৃহীত অর্থাৎ জানা যায় (য়েন) যদ্দ্বারা (সপ্তহোতা) সাত মনুষ্য হয় অর্থাৎ পঞ্চ প্রাণ, ষষ্ঠ জীবাত্মা এবং অব্যক্ত সপ্তম এই সাত গ্রহীতা-দাতা যন্মধ্যে হয় সেই (য়জ্ঞঃ) অগ্নিষ্টোমাদি বা বিজ্ঞানরূপ ব্যবহার (তায়তে) বিস্তৃত করা হয় (তৎ) সেই (মে) আমার (মনঃ) যোগচিত্ত (শিবসংকল্পম্) মোক্ষরূপ সঙ্কল্পযুক্ত (অস্তু) হউক ॥ ৪ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে চিত্ত যোগাভ্যাসের সাধন এবং উপসাধন দ্বারা সিদ্ধ ভূত, ভবিষ্যৎ, বর্ত্তমান ত্রিকালের জ্ঞাতা, সকল সৃষ্টির জ্ঞাতা, কর্ম্ম, উপাসনা ও জ্ঞানের সাধক তাহাকে সর্বদাই কল্যাণে প্রিয় কর ॥ ৪ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়েনে॒দং ভূ॒তং ভুব॑নং ভবি॒ষ্যৎ পরি॑গৃহীতম॒মৃতে॑ন॒ সর্ব॑ম্ ।
য়েন॑ য়॒জ্ঞস্তা॒য়তে॑ স॒প্তহো॑তা॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ৪ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়েনেদমিত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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