अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 12
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाज्ज्योतिर्जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
83
यस्मि॒न्भूमि॑र॒न्तरि॑क्षं॒ द्यौर्यस्मि॒न्नध्याहि॑ता। यत्रा॒ग्निश्च॒न्द्रमाः॒ सूर्यो॒ वात॑स्तिष्ठ॒न्त्यार्पि॑ताः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मि॑न् । भूमि॑: । अ॒न्तरि॑क्षम् । द्यौ: । यस्मि॑न् । अधि॑ । आऽहि॑ता । यत्र॑ । अ॒ग्नि: । च॒न्द्रमा॑: । सूर्य॑: । वात॑: । तिष्ठ॑न्ति । आर्पि॑ता: । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मिन्भूमिरन्तरिक्षं द्यौर्यस्मिन्नध्याहिता। यत्राग्निश्चन्द्रमाः सूर्यो वातस्तिष्ठन्त्यार्पिताः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मिन् । भूमि: । अन्तरिक्षम् । द्यौ: । यस्मिन् । अधि । आऽहिता । यत्र । अग्नि: । चन्द्रमा: । सूर्य: । वात: । तिष्ठन्ति । आर्पिता: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यस्मिन्) जिसमें (भूमिः) भूमि, (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष और (यस्मिन्) जिस में (द्यौः) आकाश (अधि आहिता) दृढ स्थापित है। (यत्र) जिस में (अग्निः) अग्नि, (चन्द्रमाः) चन्द्रमा, (सूर्यः) सूर्य और (वातः) वायु (आर्पिताः) भली-भाँति जमे हुए (तिष्ठन्ति) ठहरते हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उस को (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥१२॥
भावार्थ
परमेश्वर में ही सब भूमि आदि लोक और पदार्थ स्थित हैं ॥१२॥
टिप्पणी
१२−(यस्मिन्) ब्रह्मणि (द्यौः) आकाशः (अधि) (दृढम्) (आहिता) स्थापिता (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (आर्पिताः) आ+अर्पिताः। समन्तात् स्थापिताः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
विषय
'भूमि, अन्तरिक्ष, धुलोक तथा अग्नि, चन्द्र, सूर्य व बायु' का आधार 'ब्रह्म'
पदार्थ
१. (यस्मिन्) = जिसमें (भूमिः अन्तरिक्षम्) = भूमि और अन्तरिक्ष तथा (यस्मिन्) = जिसमें (द्यौः) द्योलोक (अध्याहिता) = स्थापित है। (यत्र) = जिसमें (अग्निः चन्द्रमाः सूर्य: वात:) = अग्नि, चन्द्र, सूर्य और वायु (आर्पिताः तिष्ठन्ति) = समन्तात् अर्पित हुए-हुए स्थित हैं, (तम्) = उसी को (स्कम्भम्) = सर्वाधार (ब्रूहि) = कहो। (सः एव) = वह ही (स्वित्) = निश्चय से (कतमः) = अतिशयेन आनन्दमय है।
भावार्थ
भूमि, अन्तरिक्ष, बुलोक तथा अग्नि, चन्द्र, सूर्य व वायु' को अपने में स्थापित करनेवाला वह प्रभु ही है।
भाषार्थ
(यस्मिन्) जिसमें (भूमिः, अन्तरिक्षम्) भूमि, अन्तरिक्ष (यस्मिन् अधि) जिस में (द्यौः) द्युलोक (आहिता) स्थित है (यत्र) जिसमें (अग्निः चन्द्रमा, सूर्यः, वातः) अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु (आर्पिताः) समर्पित हुए (तिष्ठन्ति) स्थित हैं (तम् स्कम्भम् ब्रूहि) उसे तू स्कम्भ कह (कतमः स्वित्, एव, सः) अर्थ देखो मन्त्र (४)।
टिप्पणी
[मानो भूमि आदि ने स्कम्भ के प्रति अपने-आप को समर्पित किया हुआ है, इस लिये उस के निर्देश में ये सब चल रहे हैं]
मन्त्रार्थ
(यस्मिन्-भूमिः-अन्तरिक्षं यस्मिन् द्यौः-अध्याद्दिता ) जिस भी आधारभूत परमात्मा में पृथिवीलोक अन्तरिक्षलोक और लोक अधिष्ठित हैं (यत् अग्निः-चन्द्रमाः-सूर्य: द्यु वातः-अपितः-तिष्ठन्ति ) जिस में अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, और वात ये अधिष्ठित हैं (स्कम्भ) पूर्ववत् ॥१२॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(यस्मिन्) जिसमें (भूमिः) भूमि (अन्तरिक्षं) अन्तरिक्ष और (द्यौः) द्यौ लोक (अधि आहिता) स्थित हैं। (यत्र) जिसमें (अग्निः चन्द्रमाः) अग्नि, चन्द्रमा (सूर्यः) सूर्य और (वातः) वायु (आ अर्पिताः) सब प्रकार से आश्रित होकर (तिष्ठन्ति) खड़े हैं (तं स्कम्भम्) उस स्कम्भ का (ब्रूहि) उपदेश कर। (कतमः स्वित् एव सः) वह भला कौनसा है ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Wherein earth and firmament, wherein the heaven of light, all abide comprehended, wherein fire and light energy, the moon, the sun and the winds abide, self-surrendered to the law, of that Skambha, pray, speak to me. Which one is that? Say it is Skambha, only that of all, the ultimate centre and circumference of existence.
Translation
Wherein the earth, the midspace and the sky are firmly set; wherein the fire, the moon, the Sun and the wind stand in their places; tell me of that Skambha; which of so many, indeed, is He ?
Translation
Wherein the earth, the atmosphere and the heaven live, Wherein the fire, the moon, the sun and the air-have taken shelter ; say He is the pillar of support ; verity He is the Most Blissful Being.
Translation
Who out of many, tell me, is that All-pervading God, on Whom as their foundation Earth, and Atmosphere and Sky are set, in Whom as their appointed place rest Fire and Moon, and Sun and Wind?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(यस्मिन्) ब्रह्मणि (द्यौः) आकाशः (अधि) (दृढम्) (आहिता) स्थापिता (तिष्ठन्ति) वर्तन्ते (आर्पिताः) आ+अर्पिताः। समन्तात् स्थापिताः। अन्यत् पूर्ववत् स्पष्टं च ॥
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