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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 29
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    60

    स्क॒म्भे लो॒काः स्क॒म्भे तपः॑ स्क॒म्भेऽध्यृ॒तमाहि॑तम्। स्कम्भं॒ त्वा वे॑द प्र॒त्यक्ष॒मिन्द्रे॒ सर्वं॑ स॒माहि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्क॒म्भे । लो॒का: । स्क॒म्भे । तप॑: । स्क॒म्भे । अधि॑ । ऋ॒तम् । आऽहि॑तम् । स्कम्भ॑ । त्वा॒ । वे॒द॒ । प्र॒ति॒ऽअक्ष॑म् । इन्द्रे॑ । सर्व॑म् । स॒म्ऽआहि॑तम् ॥७.२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्कम्भे लोकाः स्कम्भे तपः स्कम्भेऽध्यृतमाहितम्। स्कम्भं त्वा वेद प्रत्यक्षमिन्द्रे सर्वं समाहितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्कम्भे । लोका: । स्कम्भे । तप: । स्कम्भे । अधि । ऋतम् । आऽहितम् । स्कम्भ । त्वा । वेद । प्रतिऽअक्षम् । इन्द्रे । सर्वम् । सम्ऽआहितम् ॥७.२९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 29
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्कम्भे) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] में (लोकाः) सब लोकाः (स्कम्भे) स्कम्भ में (तपः) तप [ऐश्वर्य वा सामर्थ्य], (स्कम्भे अधि) स्कम्भ में ही (ऋतम्) सत्यशास्त्र (आहितम्) यथावत् स्थापित है। (स्कम्भ) हे स्कम्भ ! [धारण करनेवाले परमात्मन् !] (त्वा) तुझको (प्रत्यक्षम्) प्रत्यक्ष (वेद) मैं जानता हूँ, (इन्द्रे) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् तुझ] में (सर्वम्) सब [जगत्] (समाहितम्) परस्पर धरा हुआ है ॥२९॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर के नाम स्कम्भ और इन्द्र हैं, उसके सामर्थ्य में सब लोक आदि ठहरे हैं ॥२९॥

    टिप्पणी

    २९−(स्कम्भे) सर्वधारके परमेश्वरे (लोकाः) भुवनानि (तपः) ऐश्वर्यम्। सामर्थ्यम् (अधि) आधिक्ये (ऋतम्) सत्यं वेदशास्त्रम् (आहितम्) समन्तात् स्थापितम् (स्कम्भ) हे सर्वधारक (त्वा) त्वाम् (वेद) जानामि (प्रत्यक्षम्) साक्षात् (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति त्वयि (सर्वम्) समस्तं जगत् (समाहितम्) परस्परं धृतम् ॥

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    विषय

    'लोकों, तप व ऋत' के आधार प्रभु

    पदार्थ

    १. (स्कम्भे) = उस सर्वाधार प्रभु में ही (लोका:) = ये सब लोक आहित हैं। (स्कम्भे) = उस सर्वांधार में ही (तप:) = तप आहित है-'ऋत व सत्य' के जनक तप के आधार प्रभु ही हैं ('ऋतं च सत्यं चाभीखातपसोऽध्यजायत')(स्कम्भे) = उस सर्वाधार प्रभु में ही (ऋतम् अधि आहितम्) = ऋत स्थापित है। २. हे (स्कम्भ) = सर्वाधार प्रभो ! मैं (त्वा) = आपको प्रत्यक्ष वेद-एक-एक पदार्थ में स्पष्ट जानता हूँ। सब पदार्थों में आपकी ही महिमा दीखती है। (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में ही (सर्व समाहितम्) = सब समाहित है।

    भावार्थ

    वे प्रभु ही 'लोकों, तप व ऋत' के आधार हैं। इन्द्र में सब लोक समाहित हैं।

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    भाषार्थ

    (स्कम्भे) स्कम्भ में (लोकाः) लोक, (स्कम्भे तपः) स्कम्भ में तप, (स्कम्भ अधि) स्कम्भ में (ऋतम्) ऋत (आहितम्) स्थित है। (स्कम्भ) हे स्कम्भ ! (त्वा) तुझे (प्रत्यक्षम् वेद) प्रत्यक्षरूप में मैं जानता हूं, (इन्द्रे) तुझ इन्द्र में (सर्वम्) सब (समाहितम्) समाया हुआ है, स्थित है।

    टिप्पणी

    [लोकाः= तीनों लोक। तपः = ऐश्वर्य (तप ऐश्वर्ये, दिवादिः)। ऋतम् = सांसारिक नियम। मन्त्र में स्कम्भ को इन्द्र कहा है]

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    मन्त्रार्थ

    (स्कम्भे लोकाः) जगदाधार परमात्मा में पृथिवी अदि लोक स्थित हैं (स्कम्भे तपः) जगदाधार परमात्मा में लोकों का तप-नियन्त्रण कर्म भी स्थित है (स्कम्भे अधि-ऋतम् आहितम्) जगदाधार परमात्मा में ही ऋत अर्थात् ज्ञान स्थित है (स्कम्भं त्वा प्रत्यक्षं वेद) हे स्कम्भरूप जगदाधार परमात्मन्, तुझे मैं प्रत्यक्ष जानता हूं (इन्द्रे सर्व समाहितम्) तुझ ऐश्वर्यवान् परमात्मा में सब कुछ सम्यक् आश्रित है ॥२६॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (स्कम्भे लोकाः) स्कम्भ में समस्त लोक, (स्कम्भे तपः) ‘स्कम्भ’ में तप, और (स्कम्भे ऋतम् अधि आहितम्) स्कम्भ में ‘ऋत’ परम ज्ञान प्रतिष्ठित है। हे (स्कम्भ), ‘स्कम्भ’ जगदाधार ! मैं द्रष्टा (त्वा) तुझको (प्रत्यक्षं वेद) साक्षात् करूं कि (इन्द्रे सर्वं समाहितम्) उस परम् ऐश्वर्यवान् परमेश्वर में समस्त जगत् अच्छी प्रकार स्थित है।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘स्कम्भं त्वा’ इति क्वचित्कः पाठः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    The worlds of existence abide in Skambha. Tapas, forging heat of the maker’s furnace, is in Skambha. Rtam, the law of change and formation, abides comprehended in Skambha. O Skambha, I know you by direct experience : Everything abides comprehended in Indra, your omnipotence.

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    Translation

    Within the Skambha (the support of the universe) are the worlds contained; within the Skambha is the penance (tapah); within the Skambha, I have known you directly, all of which is contained in the resplendent Lord (Indra).

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    Translation

    All the worlds rest on Skambha, the All Supporting Divine Power, heating strength repose on Skambha and the eternal law repose on Skambha. O Skambha! I esoterically know you as Indra, the Almighty God in whom all of the universe finds its base or rest.

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    Translation

    On God the worlds and penance rest. Vedic knowledge reposes on Him. O God I clearly know Thee, on Thee, Indra rests the whole universe,

    Footnote

    Indra and Skambh are both synonyms for God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २९−(स्कम्भे) सर्वधारके परमेश्वरे (लोकाः) भुवनानि (तपः) ऐश्वर्यम्। सामर्थ्यम् (अधि) आधिक्ये (ऋतम्) सत्यं वेदशास्त्रम् (आहितम्) समन्तात् स्थापितम् (स्कम्भ) हे सर्वधारक (त्वा) त्वाम् (वेद) जानामि (प्रत्यक्षम्) साक्षात् (इन्द्रे) परमैश्वर्यवति त्वयि (सर्वम्) समस्तं जगत् (समाहितम्) परस्परं धृतम् ॥

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