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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 19
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    64

    यस्य॒ ब्रह्म॒ मुख॑मा॒हुर्जि॒ह्वां म॑धुक॒शामु॒त। वि॒राज॒मूधो॒ यस्या॒हुः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । ब्रह्म॑ । मुख॑म् । आ॒हु: । जि॒ह्वाम् । म॒धु॒ऽक॒शाम् । उ॒त । वि॒ऽराज॑म् । ऊध॑: । यस्य॑ । आ॒हु: । स्क॒म्भ॒म् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म॒: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ब्रह्म मुखमाहुर्जिह्वां मधुकशामुत। विराजमूधो यस्याहुः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ब्रह्म । मुखम् । आहु: । जिह्वाम् । मधुऽकशाम् । उत । विऽराजम् । ऊध: । यस्य । आहु: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्रह्म) ब्रह्माण्ड को (यस्य) जिस [परमेश्वर] का (मुखम्) मुख [समान] (उत) और (मधुकशाम्) मधुविद्या [वेदवाणी] को (जिह्वाम्) जिह्वा [समान] (आहुः) वे [ऋषि लोग] कहते हैं। (विराजम्) विराट् [विविध शक्तिवाली प्रकृति] को (यस्य) जिसका (ऊधः) सेचनसाधन [वा दूध का आधार] (आहुः) बताते हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥१९॥

    भावार्थ

    महात्मा लोग जानते हैं कि यह सब ब्रह्माण्ड, वेदविद्या और जगत् की सामग्री परमात्मा के सामर्थ्य में वर्तमान हैं ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(यस्य) परमात्मनः (ब्रह्म) ब्रह्माण्डम् (मुखम्) मुखतुल्यम् (आहुः) ब्रुवन्ति (जिह्वाम्) (मधुकशाम्) अ० ९।१।१। मधुविद्याम्। वेदवाणीम् (उत) अपि च (विराजम्) अ० ९।८।१। विविधेश्वरीं प्रकृतिम् (ऊधः) उन्दनसाधनम्। दुग्धाधारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    शिर: वैश्वानरः, चक्षुः अङ्गिरसः

    पदार्थ

    १. (यस्य) = जिसका (शिर:) = सिर (वैश्वानरः) = वैश्वानर अग्नि है, (चक्षुः) = आँख ही (अङ्गिरस:) = प्राण ['प्राणो वै अङ्गिराः' श०६।१।२।२८] (अभवन्) = हो गये हैं। (यस्य अङ्गानि) = जिसके अङ्ग (यातवः) = गतिशील प्राणी हैं। (यस्य) = जिसका (मुखम्) = मुख ही (ब्रह्म) = वेदज्ञान हैं, (उत) = और (जिह्वाम्) = जिहा को (मधुकशाम्) = मधुरता से प्रेरणा देनेवाली वेदवाणी (आहुः) = कहते हैं । (यस्य) = जिसके (ऊधः) = ऊधस् [the bosom] वक्षस्थल को (विराजम्) = विशिष्ट दीसिवाला (आहुः) = कहते हैं। २. (तम्) = उस (स्कम्भम्) = सर्वाधार प्रभु को (ब्रूहि) = कह-उसी का स्तवन कर। (सः) = वह (एव) = ही (स्वित्) = निश्चय से (कतमः) = अत्यन्त आनन्दमय है।

    भावार्थ

    यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के भिन्न-भिन्न अङ्गों के समान है। वे सर्वाधार प्रभु अतिशयेन आनन्दमय है।

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    भाषार्थ

    (यस्य मुखम्) जिसका मुख (ब्रह्म) ब्रह्मवेद है, अथर्ववेद है, (आहुः) ऐसा कहते हैं, (उत) और (मधुकशाम्) वेदत्रयीरूप मधुर वेदवाणी (जिह्वाम्) जिह्वा है, ऐसा कहते हैं। (विराजम्) प्रकृति को (यस्य) जिस का (ऊधः) ऊधः अर्थात् दुग्धाधार अङ्ग (आहु:) कहते हैं, (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह, (कतमः, स्वित्, एव सः) अर्थ देखो (मन्त्र ४)

    टिप्पणी

    [मधुकशा = मधु + कशा ("कशा वाङ्नाम" निघं० १।११)। ऊधः =udder । "वहति यत् इति ऊधः, गवादेर्दुग्धस्थानं वा" (उणा० ४।१९४, महर्षि दयानन्द), यह ऊधः दुग्ध का वहन करता है। शब्दोच्चारण में मुखस्थ तालु आादि अवयवों और जिह्वा का परस्पर सम्बन्ध अविनाभावेन होता है, इसी प्रकार यज्ञनिष्पत्ति आदि में ब्रह्मवेद और शेष तीन वेदों का भी परस्पर सम्बन्ध अविनाभावेन है, यह मन्त्र द्वारा दर्शाया गया है। इसी भाव के द्योतन के लिये (मन्त्र १४) में, ऋचः, साम, यजुः और मही (महती वाणी अथर्ववेद) इन चारों का इकठ्ठा वर्णन हुआ है। मन्त्र (१४) में “यत्र ऋषयः प्रमथजाः" इस बहुवचन द्वारा तीन ऋषियों का, और चौथे ऋषि का वर्णन "एकर्षि" पद द्वारा हुआ है, और इन चार ऋषियों के साथ ही इन द्वारा आविर्भूत चार वेदों का भी कथन हुआ है। प्रकृति है विराज्-रूपी-गौः। इस से परमेश्वर ने जगत् रूपी दूध दोहा है]।

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    मन्त्रार्थ

    (यस्य मुखं-ब्रह्म-आहुः) जिसका मुख विद्युत् का परम अवकाश कहते हैं "ब्रह्म वै वाचः परमं व्योम" (तै० ३।६।५।५) (उत मधुकशाम्-जिह्वाम् ) और मधु-जल को कशने-प्रेरित करने वाली विद्यत् को जिह्वा कहते है "मधु-उदकनाम" (नि० १।१२) “कश गतिशासनयोः” (तुदादि०) (विराजम्ऊधः) विराज् वृष्टि को ऊधः-दुग्ध प्रस्रवण कहते हैं क्योंकि जल को स्रवित कराती है "वृष्टि वै विराट्” (शत. १२।८।३।११) (स्कम्भं तं...) पूर्ववत् ॥ १६ ॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (यस्य) जिसका (मुखम्) मुख, मुख्य या मुख स्थानीय (ब्रह्म) ‘ब्रह्म’ वेद को (आहुः) बतलाते हैं और (मधुकशाम्) मधुकशा अमृतवल्ली को (जिह्वाम् आहुः) उस स्कम्भ की जिह्वा बतलाते हैं (उत) और (विराजम्) ‘विराट्’ रूप को (यस्य) जिसका (ऊधः) उधस् अर्थात् आनन्द रस का ‘थान’ कहते हैं। हे विद्वन् ! (तं स्कम्भं ब्रूहि) उस स्कम्भ का उपदेश कर। (कतमः स्विद् एव सः) वह सब देवों में से कौनसा देव है ?

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘विराजं यस्योधाहुः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Whose speech, they say, is Brahma, the universal Veda, whose tongue is the honey sweet cosmic speech of the Vedic knowledge, whose treasure-hold of energy and vitality is the refulgent universe itself of Prakrti, of that Skambha, pray, speak to me, which one, for sure, is that? Say it is Skambha, only that of all, the centre and the circumference of existence, ultimately.

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    Translation

    Whose mouth (mukha) they say, is the Lord supreme, the tongue (jihvā) is the honeyed string (madhukašā) and the udder (ūdhah) is Virāj, they say tell me of that Skambha; which of so many, indeed, is He ?

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    Translation

    Who out of many powers, tell me O learned! is that Supporting Divine Power, the mouth of whom the learned men call the Vedic speech and whose organ of speech is the Madhukasha the Vigorous power of creation and of whom the Virat is called udder.

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    Translation

    Who out of many, tell me is that All-pervading God, Whose Mouth the sages say is this world. Whose tongue is the Vedic lore, and multi-powered Matter is Whose source of enjoyment for mankind.

    Footnote

    Just as udder yields milk which strengthens the body, so Nature is God’s udder ऊधस which yields enjoyment to mankind.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(यस्य) परमात्मनः (ब्रह्म) ब्रह्माण्डम् (मुखम्) मुखतुल्यम् (आहुः) ब्रुवन्ति (जिह्वाम्) (मधुकशाम्) अ० ९।१।१। मधुविद्याम्। वेदवाणीम् (उत) अपि च (विराजम्) अ० ९।८।१। विविधेश्वरीं प्रकृतिम् (ऊधः) उन्दनसाधनम्। दुग्धाधारम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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