अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 18
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
53
यस्य॒ शिरो॑ वैश्वान॒रश्चक्षु॒रङ्गि॑र॒सोऽभ॑वन्। अङ्गा॑नि॒ यस्य॑ या॒तवः॑ स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । शिर॑: । वै॒श्वा॒न॒र: । चक्षु॑: । अङ्गि॑रस: । अभ॑वन् । अङ्गा॑नि । यस्य॑ । या॒तव॑: । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म॒: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य शिरो वैश्वानरश्चक्षुरङ्गिरसोऽभवन्। अङ्गानि यस्य यातवः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । शिर: । वैश्वानर: । चक्षु: । अङ्गिरस: । अभवन् । अङ्गानि । यस्य । यातव: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) जिस [परमेश्वर] के (शिरः) शिर [के तुल्य] (वैश्वानरः) सब नरों का हितकारी गुण [है], (चक्षुः) नेत्र [के तुल्य] (अङ्गिरसः) अनेक ज्ञान (अभवन्) हुए हैं। (यस्य) जिसके (अङ्गानि) अङ्गों [के समान] (यातवः) प्रयत्न हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥१८॥
भावार्थ
मनुष्य परमात्मा को सर्वहितकारी, सर्वज्ञ और परम पुरुषार्थयुक्त जानकर उन्नति करे ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(यस्य) (शिरः) मस्तकं यथा (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितो गुणः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। सर्वनरहितो गुणः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। बोधाः। ज्ञानानि (अभवन्) (अङ्गानि) (यातवः) कृवापाजि०। उ० १।१। यती प्रयत्ने-उण्। प्रयत्नाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
शिर: वैश्वानरः, चक्षुः अङ्गिरसः
पदार्थ
१. (यस्य) = जिसका (शिर:) = सिर (वैश्वानरः) = वैश्वानर अग्नि है, (चक्षुः) = आँख ही (अङ्गिरस:) = प्राण ['प्राणो वै अङ्गिराः' श०६।१।२।२८] (अभवन्) = हो गये हैं। (यस्य अङ्गानि) = जिसके अङ्ग (यातवः) = गतिशील प्राणी हैं। (यस्य) = जिसका (मुखम्) = मुख ही (ब्रह्म) = वेदज्ञान हैं, (उत) = और (जिह्वाम्) = जिहा को (मधुकशाम्) = मधुरता से प्रेरणा देनेवाली वेदवाणी (आहुः) = कहते हैं । (यस्य) = जिसके (ऊधः) = ऊधस् [the bosom] वक्षस्थल को (विराजम्) = विशिष्ट दीसिवाला (आहुः) = कहते हैं। २. (तम्) = उस (स्कम्भम्) = सर्वाधार प्रभु को (ब्रूहि) = कह-उसी का स्तवन कर। (सः) = वह (एव) = ही (स्वित्) = निश्चय से (कतमः) = अत्यन्त आनन्दमय है।
भावार्थ
यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के भिन्न-भिन्न अङ्गों के समान है। वे सर्वाधार प्रभु अतिशयेन आनन्दमय है।
भाषार्थ
(वैश्वानरः) सूर्य (यस्य) जिसका (शिरः) सिर है, (अङ्गिरसः) तथा सूर्य की रश्मियां (चक्षुः) आंख की रश्मियां (अभवन्) हुई हैं। (यातवः) द्युलोक के गतिमान् चन्द्र, नक्षत्र, तारा आदि (यस्य) जिस के (अङ्गानि) अंग हैं, (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह, (कतमः, स्वित्, एव, सः) अर्थ देखो (मन्त्र ४)।.
टिप्पणी
[यातवः (अथर्व० १३। सुक्त ४। पर्याय ३ मन्त्र ६ (२७)। परमेश्वर को पुरुष कल्पित कर के उस के अङ्गों की कल्पना की गई है, यह जताने के लिये कि जैसे मानुष-पुरुष के अङ्गों में प्रेरणा जीवात्मा द्वारा होती है, वैसे ब्रह्माण्ड में भी प्रेरणा महानात्मा द्वारा हो रही है]।
मन्त्रार्थ
(वैश्वानरः-यस्य शिरः) व्याप्त अग्नि या द्युलोक जिसका शिर है (अङ्गिराः-चक्षुः-अभवत् ) पिण्डरूप अग्नि जिसका नेत्र “श्रङ्गिरा वा अग्निः" (शत० ६।४।४।४ ) (यातवः-यस्यअङ्गानि) आकाश में चलने वाले ग्रह तारे जिसके अङ्ग हैं- गात्र हैं (स्कम्भम्...) पूर्ववत् ॥ १८ ॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(वैश्वानरः) वैश्वानर, सूर्य (यस्य) जिसका (शिरः) शिर है, (अङ्गिरसः) अंगिरस=उसके विराट् देह में रस या सारभूत तेजोमय सहस्रों नक्षत्रमय सूर्य (चक्षुः) चक्षुरूप (अभवन्) हैं। और (यातवः) गतिमान समस्त लोक (यस्य) जिसके (अङ्गानि) अङ्ग हैं (तं स्कम्भ ब्रूहि) उस स्कम्भ का उपदेश करो। (कतमः स्वित् एव सः) वह कौनसा पदार्थ है ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Whose head is Vaishvanara, cosmic fire that blazes in the sun on high, whose eye is the radiant rays of light and knowledge that illuminate and enlighten all within and without, whose limbs are all moving stars, planets and galaxies, indeed the entire dynamic systems of the universe, of that Skambha, pray, speak to me, which one, for sure, is that? Say it is Skambha, only that which is all, the ultimate centre and circumference of existence.
Translation
He, whose head is the fire (vaisvanara) beneficial for all men; whose vision (caksuah) are the Angiras; whose limbs are the travelling celestial bodies (Yatavah); tell me of that Skambha, which among so many, indeed, is He ?
Translation
Who out of many powers, tell me O learned! is that Supporting Divine Power of whom the Sun becomes head and of whom Angirasah, the luminous bodies become eye and of whom the moving worlds become limbs.
Translation
Who out of many tell me is that All-pervading God, of Whom the Sun became the head, the planets His eye, and all revolving worlds His corporeal parts?
Footnote
The language is metaphorical. God is Incorporeal. To show the vastness and grandeur of God, the Sun is described as His head, the planets as eye, and all moving worlds as limbs.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(यस्य) (शिरः) मस्तकं यथा (वैश्वानरः) अ० १।१०।४। सर्वनरहितो गुणः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। सर्वनरहितो गुणः (चक्षुः) (अङ्गिरसः) अ० २।१२।४। अगि गतौ-असि, इरुडागमः। बोधाः। ज्ञानानि (अभवन्) (अङ्गानि) (यातवः) कृवापाजि०। उ० १।१। यती प्रयत्ने-उण्। प्रयत्नाः। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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