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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 31
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - मध्येज्योतिर्जगती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    93

    नाम॒ नाम्ना॑ जोहवीति पु॒रा सूर्या॑त्पु॒रोषसः॑। यद॒जः प्र॑थ॒मं सं॑ब॒भूव॒ स ह॒ तत्स्व॒राज्य॑मियाय॒ यस्मा॒न्नान्यत्पर॒मस्ति॑ भू॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाम॑ । नाम्ना॑ । जो॒ह॒वी॒ति॒ । पु॒रा । सूर्या॑त्‌ । पु॒रा । उ॒षस॑: । यत् । अ॒ज: । प्र॒थ॒मम् । स॒म्ऽब॒भूव॑ । स: । ह॒ । तत् । स्व॒ऽराज्य॑म् । इ॒या॒य॒ । यस्मा॑त् । न । अ॒न्यत् । पर॑म् । अस्ति॑ । भू॒तम् ॥७.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाम नाम्ना जोहवीति पुरा सूर्यात्पुरोषसः। यदजः प्रथमं संबभूव स ह तत्स्वराज्यमियाय यस्मान्नान्यत्परमस्ति भूतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाम । नाम्ना । जोहवीति । पुरा । सूर्यात्‌ । पुरा । उषस: । यत् । अज: । प्रथमम् । सम्ऽबभूव । स: । ह । तत् । स्वऽराज्यम् । इयाय । यस्मात् । न । अन्यत् । परम् । अस्ति । भूतम् ॥७.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 31
    Acknowledgment

    हिन्दी (6)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    वह [मनुष्य] (सूर्यात्) सूर्य से (पुरा) पहिले और (उषसः) उषा [प्रभात] से (पुरा) पहिले [वर्तमान] (नाम) एक नाम [परमेश्वर] को (नाम्ना) दूसरे नाम [इन्द्र, स्कम्भ, अज आदि] से (जोहवीति) पुकारता रहता है। (यत्) क्योंकि (अजः) अजन्मा [परमेश्वर] (प्रथमम्) पहिले ही पहिले (संबभूव) शक्तिमान् हुआ, (सः) उस ने (ह) ही (तत्) वह (स्वराज्यम्) स्वराज्य [स्वतन्त्र राज्य] (इयाय) पाया, (यस्मात्) जिस [स्वराज्य] से (परम्) बढ़कर (अन्यत्) दूसरा (भूतम्) द्रव्य (न अस्ति) नहीं है ॥३१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर कार्यरूप काल और उस के अवयवों के पहिले सृष्टि के आदि में प्रलय में भी वर्तमान था। गुण कर्म स्वभाव के अनुसार उसके अनन्त नाम हैं। वह अपनी सर्वशक्तिमत्ता से अनन्यजित् स्वराज्य करता है। उसी की उपासना सब मनुष्य करें ॥३१॥

    टिप्पणी

    ३१−(नाम) एकं नाम परमेश्वरम् (नाम्ना) अन्येन बहुनाम्ना (जोहवीति) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयति (पुरा) पूर्वम् (सूर्यात्) (पुरा) (उषसः) प्रभातकालात् (यत्) यस्मात् कारणात् (अजः) अजन्मा (प्रथमम्) सृष्ट्यादौ (संबभूव) शक्तिमान् बभूव (सः) अजः (ह) एव (तत्) (स्वराज्यम्) स्वतन्त्राधिपत्यम् (इयाय) प्राप (यस्मात्) स्वराज्यात् (न) निषेधे (अन्यत्) (परम्) उत्कृष्टम् (अस्ति) (भूतम्) द्रव्यम् ॥

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    विषय

    नामस्मरण व स्वराज्य प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (सूर्यात् पुरा) = सूर्योदय से पूर्व ही, सूर्योदय से क्या? (उषस: पुरा) = उषाकाल से भी पहले नाना-'इन्द्र, स्कम्भ' आदि नामों से एक साधक (नाम जोहवीति) = उस शत्रुओं को नमानेवाले प्रभु को पुकारता है। इस 'नाम-जप' से प्रेरणा प्राप्त करके (यत्) = जब (अज:) = सब बुराइयों को क्रियाशीलता द्वारा परे फेंकनेवाला जीव [अज गतिक्षेपणयोः] (प्रथमम्) = उस सर्वाग्रणी व सर्वव्यापक [प्रथ विस्तारे] प्रभु के (संबभूव) = साथ होता है, अर्थात् प्रभु से अपना मेल बनाता है, तब (स:) = वह अज (ह) = निश्चय से (स्वराज्यम् इयाय) = स्वराज्य प्राप्त करता है-अपना शासन करनेवाला बनता है, इन्द्रियों का दास नहीं होता। वह उस स्वराज्य को प्राप्त करता है (यस्मात्) = जिससे (परम्) = बड़ा (अन्यत्) = दूसरा (भूतम्) = पदार्थ (न अस्ति) = नहीं हैं।

    भावार्थ

    जब एक साधक ब्राह्ममुहूर्त में प्रभु का स्मरण करता है तब वह बुराइयों को दूर करके प्रभु के साथ मेलवाला होता है। यह प्रभु-सम्पर्क इसे इन्द्रियों का स्वामी [न कि दास] बनाता है। यह आत्मशासन-स्वराज्य-सर्वोत्तम वस्तु है।

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    भाषार्थ

    उपासक (नाम नाम्ना) भिन्न-भिन्न नाम द्वारा, (पुरा सूर्यात्) सूर्योदय से पहिले, (पुरा उषसः) तथा उषा के काल से पहिले, (जोहवीति) स्कम्भ का बार-बार आह्वान करता है। (यदजः) जो "अज" अर्थात् जनन-रहित-आत्मा (प्रथमम्) उपासना में, (प्रथमम्) प्रथम अर्थात् सूर्योदय और उषा से पूर्व (सम्बभूव) उपासना में उपस्थित होता है (सः) वह, (ह) निश्चय से (तत्) उस (स्वराज्यम्) स्वराज्य को (इयाय) प्राप्त हो जाता है, (यस्मात्) जिस से (अन्यत्) भिन्न (परम्) श्रेष्ठ (भूतम्) सद्वस्तु (न अस्ति) नहीं है।

    टिप्पणी

    [नाम नाम्ना = इन नामों में स्कम्भ और इन्द्र, इन दो नामों का कथन मन्त्र २९, ३० में हुआ है। स्वराज्यम् = जीवन पर इन्द्रियों और मन का राज्य न होकर, आत्मा का अपना राज्य होना। जोहवीति = ह्वेञ् स्पर्धायां शब्दे च, यङ्लुकि रूपम्]।

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    विषय

    (उपासना खण्ड) उपासना का समय और फल

    शब्दार्थ

    (यत्) जो (अजः) अजन्मा, प्रगतिशील महात्मा (प्रथमम्) सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म के प्रति (उषस: पुरा) उषाकाल से पूर्व, सूर्योदय से पूर्व और (सूर्यात् पुरा) सूर्यास्त से पूर्व (सं बभूव) संयुक्त हो जाया करता है और (नाम) नमस्कार करने योग्य परमेश्वर को (नाम्ना) नाम, ओंकार के द्वारा (जोहवीति) जपता है (स: ह) वह ही (तत्) उस (स्वराज्यम्) स्वराज को, आत्मप्रकाश को, मुक्ति को (इयाय) प्राप्त करता है (यस्मात् परम्) जिससे बढ़कर (अन्यत् भूतम्) अन्य कुछ भी, अन्य कोई भी पदार्थ (न अस्ति) नहीं है ।

    भावार्थ

    वैदिक सच्छास्त्रों में दो ही समय सन्ध्या करने का विधान है, सूर्योदय से पूर्व और सूर्यास्त के समय । इस मन्त्र में दो ही समय सन्ध्या करने का विधान है । त्रिकाल सन्ध्या अवैदिक है । जो भक्त, जो उपासक सूर्योदय और सूर्यास्त के समय परमात्मा, से संयुक्त होते हैं, प्रभु-उपासना करते हैं उन्हें आत्म-राज्य की, मोक्ष की प्राप्ति होती है जिससे बढ़कर संसार में और कोई पदार्थ नहीं है । उस परमात्मा का जप किस प्रकार करें ? नाम द्वारा । वह नाम कौन-सा है ? यजुर्वेद ४० । १५ में कहा है – ‘ओ३म् कतो स्मर ।’ हे कर्मशील जीव ! तू ओ३म् का स्मरण कर । ओ३म् परमात्मा का निज नाम है, अत: ओम् द्वारा परमात्मा का स्मरण करना चाहिए ।

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    मन्त्रार्थ

    (पुरा सूर्यात् पुरा-उषसः) सूर्योदय से पूर्व उषाकाल से भी पूर्व (नाम्ना नाम जोहवीति) एक नाम से दूसरे नाम को जैसे यहां "स्कम्भ" नाम से "इन्द्र" नाम को तथा “इन्द्र" नाम से "स्कम्भ" नाम को पर्याय से तथा अन्तिम नाम पर्याय जिसका कोई नहीं वैसा अन्तिम नाम स्वकीय स्वरूपतः अनन्य नाम “ओ३म्” जिसके विषय में वेद में कहा है “ओ३म् कतो स्पर" (यजु० ४०।१७) तथा “ओ३म् खंत्रह्म' (यजु० ४०।१७) उस “ओ३म्” नाम की उत्कृष्टता से जो अर्थदृष्टि से उपासक अर्थसहित पुनः पुनः आवृत्ति से अपने आत्मा में अनुभव करता है (यत् अजः प्रथमं सम्बभूव) जो कि ओम् नाम का वाच्य प्रथम सिद्ध है (स ह तत् स्वराज्यम्-इयाय ) वह उसका उपासक उस मोक्ष पद में स्वराज्य को प्राप्त होता है जैसे उपनिषद में कहा है “आप्नोति स्वाराज्यं ज्योग जीवाति” (तै. उ. १।६।२) (यस्मात् परम्-भूतम्-अन्यत् न अस्ति) जिससे उत्कृष्ट वस्तु अन्य नहीं है ॥३१॥

    टिप्पणी

    परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा ) इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है,

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (नाम नाम्ना जोहवीति) मनुष्य एक नाम या पद की व्याख्या करने के लिये दूसरे नाम या पद से उसको पुकारता है या (नाम) उस नमस्कार योग्य परमेश्वर को (नाम्ना) किसी भी पद से पुकार लेता है। वह परमतत्व तो (पुरा सूर्यात्) इस सूर्य से भी पहले और (उषसः पुराः) सूर्य के पूर्व उषा होता है और वह उषा से भी पूर्व विद्यमान है। (यत्) जब (प्रथमं) सब से प्रथम (सः) वह (अजः) अजन्मा, परम आत्मा ही (सं बभूव) एकमात्र था (तत्) उस समय (सः) निश्चय से कही (स्वराज्यम् इयाय) स्वयं प्रकाशमान रूप को प्राप्त था। (यस्मात्) जिससे (अन्यत्) दूसरा (परम् भूतम्) कोई ‘भूत’=उत्पन्न होने वाला पदार्थ, पर=इस जगत् को अतिक्रमण करने वाला उससे पूर्व विद्यमान (न असि) नहीं है। इस मन्त्र में ह्विटनी का ‘अज’ का अर्थ ‘बकरा’ करना बड़ा हास्यास्पद है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘जोहवीमि’ (च०) ‘स्वराज्यं जगाम’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Before sun-rise, before the dawn, the sage invokes the One original name of Divinity, ‘Aum’, by the functional name (Savita, Agni, Indra) of his own choice in Samadhi, and thereby realises the One unborn, eternal Skambha, that which, first of all in the creative process, self-manifested, assumes the sovereign power and potential as Indra, other than which there is none higher or highest that is, has been, or would be.

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    Translation

    Before the Sun (rise) and before the dawn (usasah), (one) calls out his name by name (nama namnā). As the ever-unborn comes into being first, he attains that self-luminance, superior to which there nothing exists.

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    Translation

    The man calls one name to explain by another name. God is present before the sun and before the down. The unbegotton. God who was manifest first of all. He obtained that nebulous form of the world. He is the only being whom no one from the cosmic order can surpass.

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    Translation

    Ere sun and dawn a devotee worships God with different names. When the unborn soul first comes in contact with God, it enjoys sovereign felicity, than which aught higher never hath arisen.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३१−(नाम) एकं नाम परमेश्वरम् (नाम्ना) अन्येन बहुनाम्ना (जोहवीति) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयति (पुरा) पूर्वम् (सूर्यात्) (पुरा) (उषसः) प्रभातकालात् (यत्) यस्मात् कारणात् (अजः) अजन्मा (प्रथमम्) सृष्ट्यादौ (संबभूव) शक्तिमान् बभूव (सः) अजः (ह) एव (तत्) (स्वराज्यम्) स्वतन्त्राधिपत्यम् (इयाय) प्राप (यस्मात्) स्वराज्यात् (न) निषेधे (अन्यत्) (परम्) उत्कृष्टम् (अस्ति) (भूतम्) द्रव्यम् ॥

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