Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 35
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - चतुष्पदा जगती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    109

    स्क॒म्भो दा॑धार॒ द्यावा॑पृथि॒वी उ॒भे इ॒मे स्क॒म्भो दा॑धारो॒र्वन्तरि॑क्षम्। स्क॒म्भो दा॑धार प्र॒दिशः॒ षडु॒र्वीः स्क॒म्भ इ॒दं विश्वं॒ भुव॑न॒मा वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । उ॒भे इति॑ । इ॒मे इति॑ । स्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । स्क॒म्भ: । दा॒धा॒र॒ । प्र॒ऽदिश॑: । षट् । उ॒र्वी: । स्क॒म्भे । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥७.३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्कम्भो दाधार द्यावापृथिवी उभे इमे स्कम्भो दाधारोर्वन्तरिक्षम्। स्कम्भो दाधार प्रदिशः षडुर्वीः स्कम्भ इदं विश्वं भुवनमा विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्कम्भ: । दाधार । द्यावापृथिवी इति । उभे इति । इमे इति । स्कम्भ: । दाधार । उरु । अन्तरिक्षम् । स्कम्भ: । दाधार । प्रऽदिश: । षट् । उर्वी: । स्कम्भे । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । आ । विवेश ॥७.३५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] ने (इमे उभे) इन दोनों (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी को (दाधार) धारण किया था, (स्कम्भः) स्कम्भ ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष को (दाधार) धारण किया। (स्कम्भः) स्कम्भ ने (षट्) छह [पूर्वादि चार और एक ऊपर और एक नीचे की] (उर्वीः) विस्तृत (प्रदिशः) दिशाओं को (दाधार) धारण किया, (स्कम्भे) स्कम्भ में (इदम्) यह (विश्वम्) सब (भुवनम्) सत्ता मात्र [जगत्] (आ) सब ओर से (विवेश) प्रविष्ट हुआ है ॥३५॥

    भावार्थ

    इस सूर्य, पृथिवी, आदि जगत् को परमेश्वर रचकर धारण करता है और यह सब संसार उसके बीच व्याप्त है ॥३५॥

    टिप्पणी

    ३५−(स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (दाधार) धृतवान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) (इमे) (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकम् (प्रदिशः) पूर्वादिचतस्रो दिशा उच्चनीचो च द्वे (षट्) (उर्वीः) विस्तृताः (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) अस्तित्वम्। जगत् (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वाधार 'स्कम्भ'

    पदार्थ

    १. (स्कम्भ:) = उस सर्वाधार प्रभु ने ही इमे उभे द्यावापृथिवी-इन दोनों धुलोक व पृथिवीलोक को दाधार-धारण किया हुआ है। (स्कम्भ:) = स्कम्भ ने ही (उरु अन्तरिक्षं दाधार) = विशाल अन्तरिक्ष को धारण किया है। (स्कम्भः) = स्कम्भ ने ही (षट् उर्वीः प्रदिश:) = छह बड़ी दिशाओं को दाधार धारण किया है। (स्कम्भे) = उस सर्वाधार प्रभु के एकदेश में ही (इदं विश्वं भुवनम्) = यह सारा भुवन (आविवेश) = प्रविष्ट हुआ है। प्रभु इन सबमें व्याप्त हो रहे हैं-प्रभु की व्यासि से ही यह उस-उस दीति को धारण करता है।

    भावार्थ

    प्रभु ही द्यावापृथिवी को, विशाल अन्तरिक्ष को तथा छह बड़ी दिशाओं को धारण किये हुए हैं। यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एकदेश में प्रविष्ट है और प्रभु की दीसि से दीप्त हो रहा है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (स्कम्भः) स्कम्भ ने (इमे) ये (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवीलोक (दाधार) धारित किये हुए हैं, (स्कम्भः) स्कम्भ ने (उरु) विस्तृत (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष (दाधार) धारित किया हुआ है। (स्कम्भः) स्कम्भ ने (उर्वीः) फैली हुई (षट्)(प्रदिशः) विस्तृत दिशाएं (दाधार) धारित की हुई हैं, (स्कम्भः) स्कम्भ (इदम्) इस (विश्वम्) सब (भुवनम्) ब्रह्माण्ड में (आ विवेश) प्रविष्ट है, व्याप्त है।

    टिप्पणी

    [स्कम्भः=सर्वाधार ब्रह्म। या "स्कम्भे" (चतुर्थपाद) = स्कम्भ में, यह सब भुवन प्रविष्ट हुआ-हुआ है]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (स्कम्भः-उभे-इमे द्यावापृथिवी दाधार) जगदाधार पर मात्मा दोनों इन द्यलोक और पृथिवीलोक को धारण करता है (स्कम्भः-अन्तरिक्षं दाधार) वह ही विस्तृत अन्तरिक्ष को धारण करता है (स्कम्भः-उर्वीः षट् प्रदिशः-दाधार) सर्वा-धार परमात्मा विस्तृत छ: दिशाओं को धारण करता है (स्कम्भे-इदं विश्वं भुवनम् आविवेश) सर्वाधार परमात्मा में यह सब जगत् समस्तरूप से प्रविष्ट है ॥३५॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    वह (स्कम्भः) स्कम्भ (इमे) इन (उभे) दोनों (द्यावापृथिवी) यौ और पृथिवी को (दाधार) धारण किये हुए है। (स्कम्भः) वही जगदाधार स्तम्भ रूप ‘स्कम्भ’ (उरु) विशाल इस (अन्तरिक्षम्) अन्तरि को (दाधार) धारण किये हुए है। (स्कम्भः) स्कम्भ ही (उर्वीः) विशाल इन (प्रदिशः) दिशाओं को (दाधार) धारण करता है। वस्तुतः (इदं विश्वम्) यह समस्त चराचर (भुवनम्) लोक (स्कम्भे आविवेश) स्कम्भ के ही भीतर घुसा हुआ है। अथवा—(स्कम्भः, इदं विश्वं भुवनम् आविवेश) वह जगदाधार ही समस्त विश्व में प्रविष्ट है। ‘तत् सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्’ छा० उप०।

    टिप्पणी

    ‘स्कम्भे। इदम्’ इति पदपाठः। पूर्वपादत्रये ‘स्कम्भः’ इति क्रमोपलब्धेश्चतुर्थेऽपि ‘स्कम्भः’ इत्येव साधुः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Skambha holds and sustains both the heaven and the earth, Skambha holds and sustains the vast firmament, Skambha holds and sustains the six vast directions of space, and Skambha pervades, holds and sustains this whole universe.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The Skambha (support of the universe) sustains both these heaven and earth; the Skambha sustains the wide midspace; the Skambha sustains the six wide-spread mid-quarters (pradisah) the Skambha has entered all this whatsoever.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    God the Pillar of support is holding both the earth and the heaven and the Pillar support is holding the vast atmosphere. The Pillar of support is holding the extensive six directions and the Pillar of support is pervading this entire universe.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    God set fast these two, the earth and heaven, God maintained the ample air between them. God established the six spacious regions: this whole world God entered and pervaded.

    Footnote

    Six regions: North, East, South, West, Nadir, Zenith.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३५−(स्कम्भः) सर्वधारकः परमेश्वरः (दाधार) धृतवान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (उभे) (इमे) (उरु) विस्तृतम् (अन्तरिक्षम्) मध्यलोकम् (प्रदिशः) पूर्वादिचतस्रो दिशा उच्चनीचो च द्वे (षट्) (उर्वीः) विस्तृताः (इदम्) दृश्यमानम् (विश्वम्) सर्वम् (भुवनम्) अस्तित्वम्। जगत् (आ) समन्तात् (विवेश) प्रविष्टवान्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top