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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 38
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    74

    म॒हद्य॒क्षं भुव॑नस्य॒ मध्ये॒ तप॑सि क्रा॒न्तं स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। तस्मि॑न्छ्रयन्ते॒ य उ॒ के च॑ दे॒वा वृ॒क्षस्य॒ स्कन्धः॑ प॒रित॑ इव॒ शाखाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हत् । य॒क्षम् । भुव॑नस्य । मध्ये॑ । तप॑सि । क्रा॒न्तम् । स॒लि॒लस्‍य॑ । पृ॒ष्ठे । तस्मि॑न् । श्र॒य॒न्ते॒ । ये । ऊं॒ इति॑ । के । च॒ । दे॒वा: । वृ॒क्षस्य॑ । स्कन्ध॑: । प॒रित॑:ऽइव । शाखा॑: ॥७.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महद्यक्षं भुवनस्य मध्ये तपसि क्रान्तं सलिलस्य पृष्ठे। तस्मिन्छ्रयन्ते य उ के च देवा वृक्षस्य स्कन्धः परित इव शाखाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महत् । यक्षम् । भुवनस्य । मध्ये । तपसि । क्रान्तम् । सलिलस्‍य । पृष्ठे । तस्मिन् । श्रयन्ते । ये । ऊं इति । के । च । देवा: । वृक्षस्य । स्कन्ध: । परित:ऽइव । शाखा: ॥७.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 38
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (महत्) बड़ा (यक्षम्) यक्ष [पूजनीय ब्रह्म] (भुवनस्य मध्ये) जगत् के बीच (तपसि) [अपने] सामर्थ्य में (क्रान्तम्) पराक्रमयुक्त होकर (सलिलस्य) अन्तरिक्ष की (पृष्ठे) पीठ पर [वर्तमान है]। (तस्मिन्) उस [ब्रह्म] में, (ये उ के च देवाः) जो कोई भी दिव्य लोक हैं, वे (श्रयन्ते) ठहरते हैं (इव) जैसे (वृक्षस्य शाखाः) वृक्ष की शाखाएँ (स्कन्धः परितः) [धड़ वा पीठ] के चारों ओर ॥३८॥

    भावार्थ

    अनन्त आकाश के बीच परमेश्वर की महिमा में पृथ्वी आदि लोक ठहरें हैं, जैसे पेड़ की टहनियाँ पेड़ में लगी होती हैं-गत मन्त्र देखो ॥३८॥

    टिप्पणी

    ३८−(महत्) बृहत् (यक्षम्) यक्ष पूजायाम्-घञ्। पूजनीयं ब्रह्म (भुवनस्य) ब्रह्माण्डस्य (मध्ये) (तपसि) सामर्थ्ये (क्रान्तम्) पराक्रमयुक्तम् (सलिलस्य) षल गतौ-इलच्। अन्तरिक्षस्य-दयानन्दभाष्ये, ऋक्० ७।४९।१। (पृष्ठे) उपरिभागे (तस्मिन्) ब्रह्मणि (श्रयन्ते) तिष्ठन्ति (ये) (उ) एव (के) (च) अपि (देवाः) दिव्यलोकाः (वृक्षस्य) (स्कन्धः) सप्तम्याः सुः। स्कन्धे। वृक्षकाण्डे (परितः) सर्वतः (इव) यथा (शाखाः) शाखृ व्याप्तौ-अच्। वृक्षावयवभेदाः ॥

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = ( महत् ) = बड़ा  ( यक्षम् ) = पूजनीय ब्रह्म  ( भुवनस्य मध्ये ) = जगत् के बीच  ( तपसि ) = अपने सामर्थ्य में  ( क्रान्तम् ) =  पराक्रमयुक्त हो कर  ( सलिलस्य ) = अन्तरिक्ष की  ( पृष्ठे ) = पीठ पर वर्त्तमान है ।  ( तस्मिन् ) = उस ब्रह्म में  ( य उ के च देवा: ) = जो कोई भी दिव्य लोक हैं वे  ( श्रयन्ते ) = ठहरते हैं ।  ( इव ) = जैसे  ( वृक्षस्य शाखा: ) = वृक्ष की शाखाएं  ( स्कन्धः परितः ) = धड़ और पीठ के चारों ओर होती हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ = अनन्त आकाश के बीच परमेश्वर की महिमा में पृथिवी आदि अनन्त लोक ठहरे हुए हैं। जैसे वृक्ष की शाखाएं वृक्ष के धड़ में लगी होती हैं ऐसे ही उस परमेश्वर के आश्रय सब लोक लोकान्तर वर्त्तमान हैं ।

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    विषय

    तपसि क्रान्तं, सलिलस्य पृष्ठे

    पदार्थ

    १. (भुवनस्य मध्ये) = सारे ब्रह्माण्ड में [ब्रह्माण्ड के अन्दर] वे (महद्यक्षम्) = महान् पूजनीय प्रभु स्थित हैं। सब पिण्डों में ओत-प्रोत सूत्र वे प्रभु ही तो हैं । (तपसि क्रान्तम्) = वे प्रभु तप में सबसे आगे बढ़े हुए हैं-सबको लाँघ गये हैं। वे (सलिलस्य) = [सत् लीनं अस्मिन्] प्रलयकाल में यह सब सत्तावाला जगत् जिसमें लीन हो जाता है, उस प्रधान [महद् ब्रह्म] के (पृष्ठे) = पृष्ठ पर ये प्रभु स्थित हैं-प्रकृति के अधिष्ठाता हैं। ('मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्') । २. (येउ) = के (च देवा:) = और जो कोई भी देव हैं, वे (तस्मिन्) = उस प्रभु में ही (छ्यन्ते) = आश्रय करते हैं, इसी प्रकार आश्रय करते हैं (इव) = जैसे कि (वृक्षस्य) = वृक्ष के (स्कन्धः) = तने के (परित:) = चारों ओर (शाखा:) = शाखाएँ आश्रित होती हैं।

    भावार्थ

    वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड के एक-एक पिण्ड में ओत-प्रोत सूत्र के समान हैं। वे तपोमय प्रभु ही प्रकृति के अधिष्ठाता है। उन प्रभु में ही सब देव आधारित हो रहे हैं-उस महान् देव से ही इन्हें देवत्व प्राप्त हो रहा है।

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    भाषार्थ

    (भुवनस्य) ब्रह्माण्ड के (मध्ये) मध्य में (महत् यक्षम्) महा-यक्षम विद्यमान है, (तपसि) जो कि तप में (क्रान्तम्) सब को अतिक्रान्त किये हुए है, (सलिलस्य)१ गतिशील ब्रह्माण्ड की (पृष्ठे) पीठ पर [सवार] है। (ये उ के च देवाः) जो कोई देव अर्थात् दिव्य पदार्थ हैं वे (तस्मिन्) उस में (श्रयन्ते) आश्रय पाए हुए हैं, (इव) जैसे कि (वृक्षस्य शाखाः) वृक्ष की शाखाएं (स्कन्धः परितः) वृक्ष की धड़ के चारों ओर [आश्रय पाई, हुई होती हैं]।

    टिप्पणी

    [यक्षम् =यक्ष पूजायाम् (चुरादिः), पूजनीय। तपसि= तप ऐश्वर्ये (विवादिः), तथा 'यस्य ज्ञानमयं तपः" (उपनिषद्)। सलिलस्य= सृ गतौ। अभिप्राय यह कि (१) स्कम्भ महापूजनीय है, (२), वह ब्रह्माण्ड के मध्य में है, ब्रह्माण्ड की केन्द्रीय शक्तिरूप है, (३) गतिशील ब्रह्माण्ड की पीठ पर सवार होकर उसे स्वशासन में चला रहा है, (४) ब्रह्माण्ड के घटक सब सूर्यादि देव उस में आश्रय पाए हुए हैं।] [१. सनिलस्य = सरिरस्य, रलयोरभेदः। सरिराः]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    The Mighty Supreme, adorable Skambha, is ever on the move in the midst of the universe and on top of its dynamics. In that and on that relentless Brahma depend and abide all those that are the divine forces of nature, like branches abiding and living on and around the trunk of the tree. (That’s why the winds, the waters and the mind never come to a stand still, they vibrate and flow with divine vitality.)

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    Translation

    A mighty (deity) worthy of worship (is there) in the midst of this existence, extending into heat at the surface of the flood (salila-prstha) - in Him the bounties of Nature, whatsoever, find shelter, like the branches of a tree around its trunk.

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    Translation

    Engaged in His tremendous activities of creation the Supreme Ordainer of the Universe is present in the vast space on the back of the Salila, the material cause of the Universe, the matter. In Him all the worldly forces are to take refuge as the branehes stand round the trunk of a tree.

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    Translation

    Attainable through austerity, in the world’s centre, is the Adorable God, pervading the atmosphere’s surface. In Him reside all divine objects, as branches stand round the tree-trunk.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३८−(महत्) बृहत् (यक्षम्) यक्ष पूजायाम्-घञ्। पूजनीयं ब्रह्म (भुवनस्य) ब्रह्माण्डस्य (मध्ये) (तपसि) सामर्थ्ये (क्रान्तम्) पराक्रमयुक्तम् (सलिलस्य) षल गतौ-इलच्। अन्तरिक्षस्य-दयानन्दभाष्ये, ऋक्० ७।४९।१। (पृष्ठे) उपरिभागे (तस्मिन्) ब्रह्मणि (श्रयन्ते) तिष्ठन्ति (ये) (उ) एव (के) (च) अपि (देवाः) दिव्यलोकाः (वृक्षस्य) (स्कन्धः) सप्तम्याः सुः। स्कन्धे। वृक्षकाण्डे (परितः) सर्वतः (इव) यथा (शाखाः) शाखृ व्याप्तौ-अच्। वृक्षावयवभेदाः ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    মহদ্যক্ষং ভুবনস্য মধ্যে তপসি ক্রান্তং সলিলস্য পৃষ্ঠে।

    তস্মিন্ছ্রয়ন্তে য় উ কে চ দেবা বৃক্ষস্য স্কন্ধঃ পরিত ইব শাখা ।।৪২।।

    (অথর্ব ১০।৭।৩৮)

    পদার্থঃ (মহৎ) মহান (য়ক্ষম্) পূজনীয় ব্রহ্ম (ভুবনস্য মধ্যে) জগতের মধ্যে (তপসি) নিজ সামর্থ্য দ্বারা (ক্রান্তম্) পরাক্রমযুক্ত হয়ে (সলিলস্য) অন্তরিক্ষ (পৃষ্ঠে) পৃষ্ঠে বর্তমান। (তস্মিন্) সেই ব্রহ্মের মাঝে (য় উ কে চ দেবাঃ) যাকিছু দিব্য লোক রয়েছে, তা (শ্রয়ন্তে) আশ্রয় গ্রহণ করে আছে, (ইব) যেমন (বৃক্ষস্য শাখাঃ) গাছের শাখাসমূহ (স্কন্ধঃ পরিতঃ) গাছের কাণ্ডের ওপর অবস্থান করে।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ অনন্ত আকাশের মাঝে পরমেশ্বর স্বমহিমায় পৃথিবী আদি অনন্ত লোককে ধারণ করে আছেন। যেভাবে বৃক্ষের শাখা বৃক্ষের স্কন্ধ বা কাণ্ডের উপর নির্ভর করে, তেমনি পরমেশ্বরের আশ্রয়ে সকল লোক-লোকান্তর বর্তমান ।।৪২।।

     

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