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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 40
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    44

    अप॒ तस्य॑ ह॒तं तमो॒ व्यावृ॑त्तः॒ स पा॒प्मना॑। सर्वा॑णि॒ तस्मि॒ञ्ज्योतीं॑षि॒ यानि॒ त्रीणि॑ प्र॒जाप॑तौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ । तस्य॑ । ह॒तम् । तम॑: । वि॒ऽआवृ॑त: । स: । पा॒प्मना॑ । सर्वा॑णि । तस्मि॑न् । ज्योति॑षि । यानि॑ । त्रीणि॑ । प्र॒जाऽप॑तौ ॥७.४०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अप तस्य हतं तमो व्यावृत्तः स पाप्मना। सर्वाणि तस्मिञ्ज्योतींषि यानि त्रीणि प्रजापतौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अप । तस्य । हतम् । तम: । विऽआवृत: । स: । पाप्मना । सर्वाणि । तस्मिन् । ज्योतिषि । यानि । त्रीणि । प्रजाऽपतौ ॥७.४०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 40
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्य) उस [परमेश्वर] से (तमः) अन्धकार (अप हतम्) सर्वथा नष्ट है, (सः) वह (पाप्मना) पाप से (व्यावृत्तः) विमुक्त है। (तस्मिन् प्रजापतौ) उस प्रजापालक [परमेश्वर] में (सर्वाणि) सब (ज्योतींषि) ज्योति हैं, (यानि) जो (त्रीणि) तीन [संयोग, वियोग और स्थिति रूप, यद्वा सत्त्व रज और तम रूप हैं] ॥४०॥

    भावार्थ

    प्रकाशस्वरूप, निष्पाप, परमात्मा की महिमा से परमाणुओं के संयोग-वियोग और स्थिति द्वारा, यद्वा, सत्त्व, रज और तम तीनों गुणों द्वारा यह संसार स्थित है ॥४०॥

    टिप्पणी

    ४०−(अप हतम्) विनष्टम् (तस्य) तस्मात् परमेश्वरात् (तमः) अन्धकारः (व्यावृत्तः) निवृत्तः। विमुक्तः (पाप्मना) पापेन (सर्वाणि) (तस्मिन्) (ज्योतींषि) परमाणूनां संयोगवियोगस्थितिरूपाणि, सत्त्वरजस्तमोगुणरूपाणि वा तेजांसि (यानि) (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (प्रजापतौ) प्रजापालके जगदीश्वरे ॥

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    विषय

    'सृष्टि व प्रभु' को समझनेवाले में तीन बातें

    पदार्थ

    १. [क] (तस्य) = उसका (तमः अपहतम्) = अन्धकार सुदूर विनष्ट हो जाता है-उसका अज्ञान विनष्ट होकर उसका जीवन प्रकाशमय हो जाता है। [ख] (सः) = वह (पाप्मना) = पाप से (व्यावृत्त:) = दूर [हटा हुआ] होता है। [ग] (तस्मिन्) = उसमें वे (सर्वाणि) = सब (ज्योतीषि) = ज्योतियाँ होती हैं (यानि त्रीणि) = जो तीन (प्रजापतौ) = प्रजारक्षक प्रभु में हैं। ये ज्योतियाँ इसके जीवन में शरीर के स्वास्थ्य की दीसि के रूप में, मन के नैर्मल्य के रूप में तथा मस्तिष्क की ज्ञानज्योति के रूप में प्रकट होती हैं। २. उस व्यक्ति के जीवन में ये ज्योतियों प्रकट होती हैं, (य:) = जोकि (सलिले) = [सत् लीनम् अस्मिन्] यह कार्यजगत् जिसमें लीन होकर रहता है, उस प्रकृति में (तिष्ठन्तम्) = स्थित हुए-हुए (हिरण्ययम्) = इस चमकीले [हिरण्मय] (वेतसम्) = [ऊतं स्यूतं] परस्पर सम्बद्ध लोक लोकान्तरोंवाले संसार को वेद-जानता है और जो यह जानता है कि (स:) = वह (वै) = निश्चय से (प्रजापति:) = प्रजापालक प्रभु (गुह्याः) = मेरी हृदय-गुहा में ही स्थित है। इसप्रकार जाननेवाला व्यक्ति अन्धकार व पाप से दूर होकर ज्योतिर्मय जीवनवाला बनता है।

    भावार्थ

    जो व्यक्ति इस चमकीले, परस्पर सम्बद्ध लोक-लोकान्तरोंवाले, प्रकृतिनिष्ठ संसार को जानता है तथा प्रभु को हृदयस्थ रूपेण प्रतीत करता है, वह अन्धकार से ऊपर उठता है, पाप से दूर होता है तथा प्रभु की ज्योतियों को प्राप्त करके "स्वस्थ, निर्मल व दीप्स' जीवनवाला बनता है।

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    भाषार्थ

    (तस्य) उस स्कम्भ का (तमः) अज्ञानान्धकार (अपहृतम्) अपगत या विनष्ट हुआ है (सः) इसलिये वह (पाप्मना) पाप से (व्यावृत्तः) वियुक्त है, निवृत्त है (तस्मिन्) उस स्कम्भ में (सर्वाणि) सब (ज्योतींषि) ज्योतियां हैं (यानि त्रीणि) जो तीन कि (प्रजापतौ) प्रजाओं के अधिपति में हैं।

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    मन्त्रार्थ

    (तस्य तम:-अपहृतम्) उस परमात्मा के पास से अन्धकार पृथक् रहता है वहाँ अन्धकार का क्या काम ? उसके प्रकाशस्वरूप होने से (सः पाप्मना व्यावृत्तः) वह पाप से पाप सम्पर्क से भी पृथक् है (तस्मिन् प्रजापतौ) उस प्रजापालक प्रजास्वामी परमात्मा में (यानि त्रीणि ज्योतींषि) जो तीन ज्योतियां अग्नि विद्यत् सूर्य हैं वे सब प्रजापति परमात्मा के अधीन हैं वह उनका विधाता है ॥४०॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

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    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    (तस्य) उस परमेश्वर की शक्ति से (तमः) समस्त अन्धकार (अप-हतम्) विनष्ट हो जाता है। (सः) वह समस्त (पाप्मना) पापों से (वि-आवृत्तः) पृथक् रहता है। (यानि) जो (त्रीणि) तीनों (ज्योतींषि) ज्योतियां हैं (सर्वाणि) वे सब भी (तस्मिन्) उसी (प्रजापतौ) प्रजापति में ही विराजमान हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Darkness is off from that, eternally. It is immaculate, unsullied, absolutely free from sin and evil. All the three lights (which abide in earth, firmament and heaven) abide in that Prajapati.

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    Translation

    The darkness is kicked away from Him; He is removed away from evil; within Him are all the three lights (triņi jyotisi) that-are in the Lord of creatures.

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    Translation

    Darkness is erased away from Him, He is free from all evils, and all the three lights whatever they are physically, intellectually and spiritually abide in Him, the Lord of the Creatures.

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    Translation

    He who knows God remains away from ignorance, and becomes free from sin. In him are all the lights, the three abiding in God.

    Footnote

    Three lights: Sun, lightning, fire, or Sanyog, creation, viyog dissolution, sathiti, sustenance. Some commentators interpret them as Satva, Rajasa, Tamasa.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४०−(अप हतम्) विनष्टम् (तस्य) तस्मात् परमेश्वरात् (तमः) अन्धकारः (व्यावृत्तः) निवृत्तः। विमुक्तः (पाप्मना) पापेन (सर्वाणि) (तस्मिन्) (ज्योतींषि) परमाणूनां संयोगवियोगस्थितिरूपाणि, सत्त्वरजस्तमोगुणरूपाणि वा तेजांसि (यानि) (त्रीणि) त्रिसंख्याकानि (प्रजापतौ) प्रजापालके जगदीश्वरे ॥

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