अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 9
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
99
किय॑ता स्क॒म्भः प्र वि॑वेश भू॒तं किय॑द्भवि॒ष्यद॒न्वाश॑येऽस्य। एकं॒ यदङ्ग॒मकृ॑णोत्सहस्र॒धा किय॑ता स्क॒म्भः प्र वि॑वेश॒ तत्र॑ ॥
स्वर सहित पद पाठकिय॑ता । स्क॒म्भ: । प्र । वि॒वे॒श॒ । भू॒तम् । किय॑त् । भ॒वि॒ष्यत् । अ॒नु॒ऽआश॑ये । अ॒स्य॒ । एक॑म् । यत् । अङ्ग॑म् । अकृ॑णोत् । स॒ह॒स्र॒ऽधा । किय॑ता । स्क॒म्भ: । प्र । वि॒वे॒श॒ । तत्र॑ ॥७.९॥
स्वर रहित मन्त्र
कियता स्कम्भः प्र विवेश भूतं कियद्भविष्यदन्वाशयेऽस्य। एकं यदङ्गमकृणोत्सहस्रधा कियता स्कम्भः प्र विवेश तत्र ॥
स्वर रहित पद पाठकियता । स्कम्भ: । प्र । विवेश । भूतम् । कियत् । भविष्यत् । अनुऽआशये । अस्य । एकम् । यत् । अङ्गम् । अकृणोत् । सहस्रऽधा । कियता । स्कम्भ: । प्र । विवेश । तत्र ॥७.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(कियता) कहाँ तक (भूतम्) भूत काल में (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] ने (प्र विवेश) प्रवेश किया था, (कियत्) कितना (भविष्यत्) भविष्यत् काल (अस्य) इस [परमेश्वर] के (अन्वाशये) निरन्तर आशय [आधार] में है। (यत्) जो कुछ (एकम्) एक (अङ्गम्) अङ्ग [अर्थात् थोड़ा सा जगत्] (सहस्रधा) सहस्रों प्रकार से (अकृणोत्) उस [परमेश्वर] ने रचा है, (कियता) कहाँ तक (तत्र) उसमें (स्कम्भः) स्कम्भ [धारण करनेवाले परमेश्वर] ने (प्र विवेश) प्रवेश किया था ॥९॥
भावार्थ
परमेश्वर का न तो कोई आदि और न कोई अन्त जानता है, और जितनी कुछ ईश्वर की रचना है, उस सब में वह परमात्मा परिपूर्ण हो रहा है ॥९॥
टिप्पणी
९−(भूतम्) अतीतकालम् (भविष्यत्) अनागतकालम् (अन्वाशये) अनु+आङ्+शीङ् शयने-अच्। निरन्तर आशये, आधारे (अस्य) परमेश्वरस्य (एकम्) अत्यल्पमित्यर्थः (यत्) (अङ्गम्) जगतो विभागम् (अकृणोतु) रचितवान् (सहस्रधा) बहुप्रकारेण (तत्र) तस्मिन् जगतो भागे। अन्यत् पूर्ववत्−म० ८ ॥
विषय
'दिक्कालाद्यनवच्छिन्न' प्रभुः
पदार्थ
१. (कियता) = अपने कितने अंश में (स्कम्भ:) = वह सर्वांधार प्रभु (भूतं प्रविवेश) = भूतकाल में प्रविष्ट हुआ? (अस्य कियत्) = इस स्कम्भ का कितना अंश (भविष्यत् अन्वाशये) = आनेवाले भविष्यकाल में प्रविष्ट होता है। इस स्कम्भ ने (यत्) = जब एक (अङ्गम्) = अपने एक अङ्ग को [अङ्गभूत अव्यक्त को] (सहस्त्रधा अकृणोत्) = हज़ारों प्रकारों में वर्तमानकाल में प्रकट किया है, (तत्र) = वहाँ-उस वर्तमान में वह (स्कम्भ:) = सर्वाधार प्रभु (कियता प्रविवेश) = कितने अंश में प्रविष्ट हुआ है? थोड़े ही अंश में प्रकट हुआ है।
भावार्थ
वे सर्बाधार प्रभु भूत, भविष्यत् व वर्तमान काल से अवच्छिन्न नहीं हैं। वे प्रभु तो दिक्कालाधनवच्छिन्न ही हैं।
भाषार्थ
(कियता) कितने अंश से (स्कम्भः; भूतम्, प्रविवेश) स्कम्भ ने "पूर्वभूत" जगत् में प्रवेश किया, (अस्य) इस स्कम्भ का (कियत्) कितना अंश (भविष्यत्) भावी जगत् के लिये (अन्वाशये) शयन किये रहता है। (यद् एकम्, अङ्गम्) जिस एक अङ्ग [प्रकृति] को (सहस्रधा) हजारों प्रकार में [स्कम्भ ने] (अकृणोत्) विभक्त किया, (तत्र) उसमें (स्कम्भः) स्कम्भ (कियता) कितने अंश से (प्र विवेश) प्रविष्ट हुआ।
टिप्पणी
[मन्त्र में पूर्वभूत जगत् तथा भावी जगत् का, तथा प्रलय में प्रकृति का वर्णन हुआ है। भावी जगत् के उत्पादन में स्कम्भ में भावी जगत् का वर्णन शयनावस्था में किया है। शयन किये व्यक्ति में जाग्रत्-अवस्था के निमित्त शक्ति, शयन किये रहती है, वह अभावरूप नहीं होती। इसी प्रकार भावी जगत् की उत्पत्ति के लिये स्कम्भ में शक्ति शयन किये होती है, अभावरूप नहीं होती। इस द्वारा जगत् की उत्पत्ति, निरन्तर अर्थात् एक के पश्चात् दूसरी (अनु), सदा चलती रहती है। यह सूचित किया है। प्रत्येक सृष्टि "यथापूर्वमकल्पयत्" (ऋ० १०।१९०।३) के सिद्धान्त के अनुसार होती रहती है। तथा जितने काल तक एक-सृष्टि रहती है, उतने ही काल तक उस की प्रलय भी रहती है। सृष्टिकाल को "ब्राह्मदिन" और उसके प्रलयकाल को "ब्राह्मीरात्री" कहते हैं। इस दिन और रात्री का काल समान होता है। "पादोऽस्य विश्वा भूतानि" (यजु० ३१।३) के अनुसार, प्रत्येक पूर्वभूत या भूतपूर्व जगत् में, तथा प्रत्येक भावी जगत् में, और प्रलयावस्था की प्रकृति में, परमेश्वर अर्थात् स्कम्भ, एकपाद् रूप में ही प्रविष्ट रहता हैं, यह अभिप्राय मन्त्र में प्रतीत होता है। प्रकृति को मन्त्र में "अङ्ग" कहा है। शयनावस्था में, तथा जाग्रत् अवस्था में, अङ्गों का संचालन जीवात्मा की स्थिति के कारण होता है, इसी प्रकार “अङ्गरूप प्रकृति" का संचालन भी स्कम्भात्मा के अनुसार होता है, यह अङ्गपद द्वारा प्रतिपादित किया है।]
मन्त्रार्थ
(स्कम्भः-भूतं-कियता-प्रविवेश ) सर्वाधार परमात्मा मूर्तजगत् में कितने अर्थात् कितने ही अल्प अंश से प्रविष्ट है (आस्य-कियत्-भविष्यत्-आशये) इसका कितना ही अल्प छांश भविष्यत् जगत् में व्याप्त है अर्थात् भूत और भविष्य जगत् आधार भूत परमात्मा के एकांश में सीमित है (यत्एकम्-अङ्गम्-सहस्रधा-अकृणोत्) जो एक अङ्ग-प्रकृति नामक व्यक्त को असंख्य रूपों में कर देता है जैसे उपनिषद् में "एकं वीजं बहुधा यः करोति” (श्वेता०) (स्कम्भः कियता तत्र प्रविवेश) सर्वाधार परमात्मा कितने ही थोडे अंश से निकटवर्ती जगत् में प्रविष्ट है" एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि" ॥९॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
वह ‘स्कम्भ’ (भूतम्) भूतकाल में (कियता) कितने अंश से (प्रविवेश) प्रविष्ट है ? और (भविष्यत्) भविष्यत् काल में (अस्य) इस स्कम्भ रूप ज्येष्ठ ब्रह्म का (कियत्) कितना अंश (अनु आ-शये) व्याप्त है। और (एकम् अङ्गम्) एक ही अंग को (यद्) यदि (सहस्रधा) सहस्रों रूपों में (अकृणोत्) प्रकट किया है तो (तत्र) वहां (स्कम्भः) स्कम्भ, सर्वाश्रय ज्येष्ठ ब्रह्म (कियता) कितने अंश से (प्रविवेश) प्रविष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
To what extent did Skambha enter the created world? To what extent is it dormant in relation to the future? That one part of its metaphoric personality, i.e., Prakrti, which it shaped into a thousandfold variety, how much did Skambha pervade therein?
Translation
How much the Skambha has entered the past ? And how much will he enter the future ? One part of him that He has turned into thousands, how much the Skambha has entered therein ?
Translation
How much of the Skambha, the Supporting Divine Power has entered in the past and how much of Him has reached in the future? How much of the Supporting Divine Power did enter in that one part of him which he established in thousand places and thousand ways?
Translation
How far within the past hath God entered? How much of Him hath entered into the future? That one part which He set in thousand places in the present,—how far did God penetrate within it.
Footnote
None knows the beginning or end of God, He pervades the universe in entirety.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(भूतम्) अतीतकालम् (भविष्यत्) अनागतकालम् (अन्वाशये) अनु+आङ्+शीङ् शयने-अच्। निरन्तर आशये, आधारे (अस्य) परमेश्वरस्य (एकम्) अत्यल्पमित्यर्थः (यत्) (अङ्गम्) जगतो विभागम् (अकृणोतु) रचितवान् (सहस्रधा) बहुप्रकारेण (तत्र) तस्मिन् जगतो भागे। अन्यत् पूर्ववत्−म० ८ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal