अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 20
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाज्ज्योतिर्जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
128
यस्मा॒दृचो॑ अ॒पात॑क्ष॒न्यजु॒र्यस्मा॑द॒पाक॑षन्। सामा॑नि॒ यस्य॒ लोमा॑न्यथर्वाङ्गि॒रसो॒ मुखं॑ स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥
स्वर सहित पद पाठयस्मा॑त् । ऋच॑: । अ॒प॒ऽअत॑क्षन् । यजु॑: । यस्मा॑त् । अ॒प॒ऽअक॑षन् । सामा॑नि । यस्य॑ । लोमा॑नि । अ॒थ॒र्व॒ऽअ॒ङ्गि॒रस॑: । मुख॑म् । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्मादृचो अपातक्षन्यजुर्यस्मादपाकषन्। सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखं स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
स्वर रहित पद पाठयस्मात् । ऋच: । अपऽअतक्षन् । यजु: । यस्मात् । अपऽअकषन् । सामानि । यस्य । लोमानि । अथर्वऽअङ्गिरस: । मुखम् । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (6)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यस्मात्) जिस से [प्राप्त करके] (ऋचः) ऋग् मन्त्रों [स्तुतिविद्याओं] को (अप-अतक्षन्) उन्होंने [ऋषियों ने] सूक्ष्म किया [भले प्रकार विचारा] (यस्मात्) जिससे [प्राप्त करके] (यजुः) यजुर्ज्ञान [सत्कर्मों के बोध] को (अप-अकषन्) उन्होंने कसा अर्थात् कसौटी पर रक्खा। (सामानि) मोक्षविद्याएँ (यस्य) जिस के (लोमानि) रोम [समान व्यापक] हैं और (अथर्व-अङ्गिरसः) अथर्वमन्त्र [निश्चल ब्रह्म के ज्ञान] (मुखम्) मुख [तुल्य हैं], (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥२०॥
भावार्थ
ऋषियों ने निश्चय किया है कि ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद ईश्वरकृत और समस्त संसार के कल्याणकारक हैं ॥२०॥ यह मन्त्र महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पृष्ठ ९। में व्याख्यात है ॥
टिप्पणी
२०−(यस्मात्) परमेश्वरात् प्राप्य (ऋचः) ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। ऋग्वेदमन्त्राः [अपातक्षन्] तक्षू तनूकरणे-लङ्। सूक्ष्मीकृतवन्तः। यथावद् विचारितवन्तः (यजुः) अ० ७।५४।२। यजुर्वेदम्। सत्कर्मज्ञानम् (यस्मात्) (अपाकषन्) कष हिंसायाम्-लङ्। कषपाषाणेन सुवर्णघर्षणप्रस्तरेण यथा साक्षात्कृतवन्तः (सामानि) अ० ७।५४।१। षो अन्तकर्मणि-मनिन्। सामज्ञानानि। मोक्षज्ञानानि (यस्य) (लोमानि) रोमतुल्यानि (अथर्वाङ्गिरसः) स्नामदिपद्यर्ति०। उ० ४।११३। अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्, वलोपो विकल्पेन। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च। उ० ४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमश्च। अथर्वणो निश्चलस्वभावस्य परमेश्वरस्य अङ्गिरसो बोधाः। अथर्ववेदमन्त्राः (मुखम्)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
वेदोत्पत्तिविषयः
व्याख्यान
( यस्मादृचो अपा॰ ) जो सर्वशक्तिमान् परमेश्वर है, उसी से ( ऋचः ) ऋग्वेद ( यजुः ) यजुर्वेद ( सामानि ) सामवेद ( आङ्गिरसः ) अथर्ववेद, ये चारों उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार रूपकालङ्कार से वेदों की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर करता है कि अथर्ववेद मेरे मुख के समतुल्य, सामवेद लोमों के समान, यजुर्वेद हृदय के समान और ऋग्वेद प्राण की नाईं है। ( ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ) कि चारों वेद जिससे उत्पन्न हुए हैं सो कौन-सा देव है, उसको तुम मुझसे कहो? इस प्रश्न का यह उत्तर है कि—( स्कम्भं तं० ) जो सब जगत् का धारणकर्त्ता परमेश्वर है उसका नाम ‘स्कम्भ’ है, उसी को तुम वेदों का कर्त्ता जानो, और यह भी जानो कि उसको छोड़ के मनुष्यों के उपासना करने के योग्य दूसरा कोई इष्टदेव नहीं है। क्योंकि ऐसा अभागी कौन मनुष्य है जो वेदों के कर्त्ता सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को छोड़ के दूसरे को परमेश्वर मान के उपासना करे।
विषय
ऋग, यजु, साम, अथर्व
पदार्थ
१. (यस्मात्) = जिससे (ऋच:) = ऋचाएँ-विज्ञान-प्रतिपादक मन्त्र-(अपातक्षन्) = बनाये गये, (यस्मात्) = जिससे (यजु:) = यजुर्मन्त्र-कर्मप्रतिपादक मन्त्र (अपाकषन्) = निर्मित हुए। (सामानि) = साम मन्त्र-उपासना प्रतिपादक मन्त्र (यस्य) = जिसके (लोमानि) = लोम तुल्य हैं, तथा (अथर्व-अङ्गिरस:) = अङ्गिरा ऋषि के हृदय में प्रेरित किये गये अथर्ववेद के मन्त्र (मुखम्) = जिसका मुख है। (तम्) = उस (स्कम्भम्) = सर्वाधार प्रभु को (ब्रूहि) = कह, उसी का स्तवन कर। (सः एव) = वही (स्वित्) = निश्चय से (कतम:) = अतिशयेन आनन्दमय है।
भावार्थ
प्रभु ने 'ऋग, यजुः, साम' मन्त्रों द्वारा ज्ञान, कर्म, उपासना का प्रतिपादन किया तथा अथर्व-मन्त्रों द्वारा 'कम खाने व कम बोलने' का उपदेश देते हुए अङ्ग-प्रत्यङ्ग को रसमय बनने का संकेत किया।
भाषार्थ
(यस्मात्) जिस परमेश्वर से [ऋषियों ने] (ऋचः) ॠचाओं [ऋग्वेद] को (अपातक्षन्) प्राप्त किया, (यस्मात्) जिस परमेश्वर से (यजुः) यजुर्वेद को (अपाकषन्ः) प्राप्त किया। (सामानि) सामवेद के मन्त्र (यस्य) जिस परमेश्वर के (लोमानि) लोम सदृश हैं। (अथर्वाङ्गिरसः) अङ्गों के तथा ओषधियों के रसों का वर्णन करने वाला अथर्ववेद (मुखम्) जिस का मुखवत् मुख्य है (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह, (कतमः स्वित् एव सः) अर्थ देखो (मन्त्र ४)।
टिप्पणी
[अपातक्षन् = इस क्रियापद में तक्षण का कथन हुआ है। तक्षा अर्थात तर्खान तक्षण द्वारा काष्ठ से अभीष्ट वस्तु को प्राप्त करता है इसी प्रकार ऋषि या तपस्वी तपश्चर्या आदि द्वारा परमेश्वर से ऋग्वेद को प्राप्त करते हैं। अपाकषन् = इस क्रियापद में "कष" धातु है जिस का अर्थ है "हिंसा" (भ्वादिः)। ऋषि या तपस्वी, निज एषणाओं का क्षय कर के, यजुर्वेद को परमेश्वर से प्राप्त करते हैं। यजुर्वेद काम्य कर्मकाण्ड का वर्णन कर, ४० अध्याय में अध्यात्म तत्त्वों का वर्णन करता है। ऋषि या तपस्वी, अध्यात्म जीवन में, निज एषणाओं का क्षय (कष हिंसायाम्) कर यजुर्वेद को प्राप्त करते हैं। सामवेद भक्तिगानों का वर्णन करता है, जिन गानों द्वारा प्रायः लोमहर्षण हो जाता है। अतः सामों को लोमानि कहा है। अथर्ववेद में नाना ऐहिक तथा पारलौकिक विषयों का अधिक वर्णन है इसलिये इसे मुख अर्थात् मुख्यवेद कहा है। अङ्गिराः-अङ्गानां रसः (बृहद्० उप० १।३।१९)]।
मन्त्रार्थ
(यस्मात्-ऋचः-आपातक्षन् ) जिस सर्वाधार परब्रह्म परमात्मा से ऋग्वेद के मन्त्र प्रगट हुऐ "कर्मणि कर्तृप्रत्ययः" (यस्मात्-यजुः-अपाकषन्) जिस से यजुर्वेद के मन्त्र निःसृत हुये (सामानि यस्य लोमानि) सामवेद के मन्त्र जिसके लोमसूक्ष्म बालों के समान स्वभाव से प्रसिद्ध हुये (अथर्वाङ्गिरसःमुखम् ) अथर्वा-स्थिर ध्यानीजन और आङ्गिरस अङ्गों के रसादि को जानने वालों के दृष्ट मन्त्र "तद्धि प्रत्ययलोप श्छान्दसः” अथर्ववेद मन्त्र मुख के समान जिसके हैं (स्कम्भम् ") पूर्ववत् ॥२०॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(यस्मात्) जिस ‘स्कम्भ’ से (यजुः) यजुर्वेद (अप अकषन्) प्रकट हुआ। (सामानि) साम (यस्य लोमानि) जिसके लोम हैं और (अथर्वाङ्गिरसः) अथर्व और आङ्गिरस वेद (मुखम्) जिस ‘स्कम्भ’ का मुख हैं। (तं स्कम्भं ब्रूहि) उस स्कम्भ को मुझे बतला कि (कतमः स्विद् एव सः) वह सब देवों में से कौनसा देव है ?
टिप्पणी
‘यस्मादृचोऽपा’, (तृ०) ‘छन्दांसि यस्य’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
From whom Rks of the Veda are received, realised and articulated in form and meaning, from whom the Yajus are received, from whom the Samans arise as hair grow from the body, and whose natural spontaneous word of speech is Atharva-veda, received, realised and articulated by the Angirasas, of that Skambha, pray, speak to me, which one, for sure, is That? Say it is Skambha, only that of all, the ultimate centre and circumference of existence.
Translation
Out of whom they chipped off the R k verses; out of whom they hewed the Yajus (sacrificial formulas); Sāmans (praise songs) are whose short hair (on the body); and Atharvan hymns of Angiras are whose mouth (mukha); tell me of that Skambha; which of so many, indeed; is He ?
Translation
From Him the sages extract the Rigveda and from Him they get the Yajurveda, All-pervading like His hair are the Samveda and the Atharaveda, the essence of all knowledge is like his mouth. Who is that Supreme Being? Proclaim Him to be the Upholding Pillar of the Universe.
Translation
Who out of many, tell me, is that All-pervading God, Who revealed the Rigveda, the Yajurveda, Whose hairs are Sama-verses, and mouth the hymns of the Atharvaveda.
Footnote
The knowledge of the Vedas is co-eternal with God. Never was there a time when God existed, not the Vedas. Just as hairs form the part and parcel of the body, and mouth is its part, they co-exist with the body, so the Vedas co-existed with God. God and His knowledge, the Vedas exist together. God out of his infinite knowledge, reveals a part of it in the shape of the Vedas in the beginning of each cycle of creation,: which was quite adequate for the complete development of the soul.
संस्कृत (2)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(यस्मात्) परमेश्वरात् प्राप्य (ऋचः) ऋग् वाङ्नाम-निघ० १।११। ऋग्वेदमन्त्राः [अपातक्षन्] तक्षू तनूकरणे-लङ्। सूक्ष्मीकृतवन्तः। यथावद् विचारितवन्तः (यजुः) अ० ७।५४।२। यजुर्वेदम्। सत्कर्मज्ञानम् (यस्मात्) (अपाकषन्) कष हिंसायाम्-लङ्। कषपाषाणेन सुवर्णघर्षणप्रस्तरेण यथा साक्षात्कृतवन्तः (सामानि) अ० ७।५४।१। षो अन्तकर्मणि-मनिन्। सामज्ञानानि। मोक्षज्ञानानि (यस्य) (लोमानि) रोमतुल्यानि (अथर्वाङ्गिरसः) स्नामदिपद्यर्ति०। उ० ४।११३। अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्, वलोपो विकल्पेन। अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। अङ्गतेरसिरिरुडागमश्च। उ० ४।२३६। अगि गतौ-असि, इरुडागमश्च। अथर्वणो निश्चलस्वभावस्य परमेश्वरस्य अङ्गिरसो बोधाः। अथर्ववेदमन्त्राः (मुखम्)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषयः
वेदोत्पत्तिविषयः
व्याख्यानम्
( यस्मादृचः ) यस्मात् सर्वशक्तिमतः ऋचः ऋग्वेदः ( अपातक्षन् ) अपातक्षत् उत्पन्नोऽस्ति, [यस्मात्] यस्मात् परब्रह्मणः ( यजुः ) यजुर्वेदः ( अपाकषन् ) प्रादुर्भूतोऽस्ति, तथैव यस्मात् ( सामानि ) सामवेदः ( आङ्गिरसः ) अथर्ववेदश्चोत्पन्नौ स्तः, एवमेव [यस्य आङ्गिरसो मुखम्] यस्येश्वरस्याङ्गिरसोऽथर्ववेदो मुखं मुखवन्मुख्योऽस्ति, सामानि [लोमानि] लोमानीव सन्ति, यजुर्यस्य हृदयमृचः प्राणश्चेति रूपकालङ्कारः। यस्माच्चत्वारो वेदा उत्पन्नाः [कतमः स्विदेव सः ब्रूहि] स कतमः स्विद्देवोऽस्ति तं त्वं ब्रूहीति प्रश्नः? अस्योत्तरम्—( स्कम्भं तम् ) तं स्कम्भं सर्वजगद्धारकं परमेश्वरं त्वं जानीहीति, तस्मात् स्कम्भात् सर्वाधारात् परमेश्वरात् पृथक् कश्चिदप्यन्यो देवो वेदकर्त्ता नैवास्तीति मन्तव्यम्।
मराठी (1)
व्याख्यान
भाषार्थ : प्रथम ईश्वराला नमस्कार करून व प्रार्थना करून वेदाच्या उत्पत्तीचा विषय लिहिला जात आहे. वेद कुणी उत्पन्न केलेले आहेत? (तस्मात् यज्ञात्स.) सत् ज्याचा कधी नाश होत नाही, चित् जो सदैव ज्ञानरूप असून, ज्याच्यात अज्ञानाचा लवलेशही नसतो, जो सदैव आनंदमय व सुखस्वरूप असून, सर्वांना सुख देणारा असतो. या लक्षणांनी युक्त पुरुष सर्वत्र व्याप्त आहे, परिपूर्ण आहे. जो सर्व माणसांनी उपासना करण्यायोग्य इष्टदेव व सर्व सामर्थ्याने युक्त आहे. त्याच परब्रह्मापासून (ऋच:) ऋग्वेद, (यजु:) यजुर्वेद, (सामानि) सामवेद व (छन्दांसि) अथर्ववेद हे चार वेद उत्पन्न झालेले आहेत. त्यासाठी सर्व माणसांनी वेदांचे ग्रहण करावे व वेदोक्त रीतीने आचरण करावे. ‘जज्ञिरे’ व ‘अजायत’ या दोन क्रियांच्या अधिकतेमुळे वेद अनेक विद्यांनी युक्त आहेत, असे म्हटले जाते, तसेच ‘तस्मात्’ ही दोन पदे अधिक असल्यामुळे हे निश्चित जाणले पाहिजे, की ईश्वरापासूनच वेद निर्माण झालेले आहेत. एखाद्या माणसापासून नव्हे. वेदात सर्व मंत्र गायत्री इत्यादी छंदांनीच युक्त आहेत. त्यामुळे ‘छन्दांसि’ या पदाने अथर्ववेदाच्या उत्पत्तीवर प्रकाश पडतो. शतपथ इत्यादी ब्राह्मण व वेदमंत्रांच्या प्रमाणाने हे सिद्ध होते, की यज्ञ शब्दाने विष्णू व विष्णू शब्दाने सर्वव्यापक परमेश्वराचे ग्रहण होते. कारण सर्व जगाची उत्पत्ती करणारा परमेश्वरच आहे, इतर कोणी नाही. ॥१॥ (यस्मादृचो अपा.) जो सर्वशक्तिमान परमेश्वर आहे. त्याच्यापासूनच (ऋच:) ऋग्वेद, (यजु:) यजुर्वेद, (सामानि) सामवेद व (आङ्गिरस:) अथर्ववेद, हे चारही वेद उत्पन्न झालेले आहेत. याच प्रकारे रूपकालंकाराने वेदाची उत्पत्ती ईश्वरच करतो. अथर्ववेद माझ्या मुखाप्रमाणे, सामवेद लोमाप्रमाणे, यजुर्वेद हृदयाप्रमाणे व ऋग्वेद प्राणाप्रमाणे आहे. (ब्रूहि कतम: स्विदेव स:) चारही वेद ज्याच्याद्वारे उत्पन्न झालेले आहेत, तो कोणता देव आहे? ते मला सांगा. या प्रश्नाचे उत्तर असे आहे, की (स्कम्भंतं.) जो सर्व जगाचा धारणकर्ता परमेश्वर आहे, त्याचे नाव स्कम्भ आहे. त्यालाच तुम्ही वेदांचा कर्ता जाणा व हेही जाणा, की त्याला सोडून माणसांनी उपासना करण्यायोग्य दुसरा कोणी इष्टदेव नाही. असा दुर्दैवी मनुष्य कोण असेल जो वेदकर्त्या सर्वशक्तिमान परमेश्वराला सोडून दुसऱ्याला परमेश्वर मानून उपासना करील? ॥२॥ (एवं वा अरेऽस्य.) महाविद्वान महर्षी याज्ञवल्क्यांनी आपल्या पंडिता पत्नी मैत्रेयीला उपदेश केलेला आहे, की हे मैत्रेयी! जो आकाशापेक्षा मोठा परमेश्वर आहे त्याच्यापासनूच ऋक्, यजु:, साम व अथर्व, हे चार वेद उत्पन्न झालेले आहेत. जसा माणसाच्या शरीरातून श्वास बाहेर जातो व पुन्हा आत जातो त्याच प्रकारे सृष्टीच्या आरंभी ईश्वर वेद उत्पन्न करून जगात प्रकाश पसरवतो. प्रलयामध्ये वेद नसतात; परंतु त्याच्या ज्ञानात ते सदैव असतात. बीजांकुराप्रमाणे असतात. जसे बीजात अंकुर, प्रथमच असतो, तोच वृक्षरूप बनून बीजात असतो, याच प्रकारे वेद हे ईश्वराच्या ज्ञानात सदैव असतात. त्यांचा कधी नाश होत नाही. कारण ती ईश्वराची विद्या आहे, त्यामुळे ती नित्य आहे, हे जाणावे. ॥३॥
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