अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 15
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - उपरिष्टाज्ज्योतिर्जगती
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
63
यत्रा॒मृतं॑ च मृ॒त्युश्च॒ पुरु॒षेऽधि॑ स॒माहि॑ते। स॑मु॒द्रो यस्य॑ ना॒ड्यः पुरु॒षेऽधि॑ स॒माहि॑ताः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । अ॒मृत॑म् । च॒ । मृ॒त्यु: । च॒ । पुरु॑षे । अधि॑ । स॒माहि॑ते॒ इति॑ स॒म्ऽआहि॑ते । स॒मु॒द्र: । यस्य॑ । ना॒ड्य᳡: । पुरु॑षे । अधि॑ । स॒म्ऽआहि॑ता: । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रामृतं च मृत्युश्च पुरुषेऽधि समाहिते। समुद्रो यस्य नाड्यः पुरुषेऽधि समाहिताः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र । अमृतम् । च । मृत्यु: । च । पुरुषे । अधि । समाहिते इति सम्ऽआहिते । समुद्र: । यस्य । नाड्य: । पुरुषे । अधि । सम्ऽआहिता: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.१५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(यत्र) जिस [परमेश्वर] में (पुरुषे अधि) मनुष्य के निमित्त (मृत्युः) मृत्यु [आलस्य आदि] (च च) और (अमृतम्) अमरपन आदि [पुरुषार्थ] (समाहिते) दोनों यथावत् स्थापित हैं। (समुद्रः) समुद्र [अन्तरिक्ष, अवकाश] (यस्य) जिसकी (समाहिताः) यथावत् स्थापित (नाड्यः) नाड़ियों [के समान] (पुरुषे अधि) मनुष्य के लिये हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौनसा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥१५॥
भावार्थ
परमेश्वर ने मनुष्य के लिये मृत्यु के कारण आलस्य आदि का निषेध और अमरपन अर्थात् पुरुषार्थ आदि की विधि, और कार्य करने को अन्तरिक्ष वा अवकाश स्थापित किया है ॥१५॥
टिप्पणी
१५−(यत्र) यस्मिन् परमात्मनि (अमृतम्) अमरत्वं पौरुषादिकम् (च च) (मृत्युः) मरणकारणमालस्यादिकम् (पुरुषे) मनुष्यनिमित्ते (अधि) सप्तम्यर्थानुवादी (समाहिते) सस्यक् स्थापिते (समुद्रः) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३ (यस्य) (नाड्यः) नाड्यो यथा (पुरुषे) (अधि) अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अमृत, मृत्यु, समुद्र
पदार्थ
१. (यत्र पुरुषे) = जिस परम पुरुष में (अमृतं च मृत्युः च) = अमृत [नीरोगता] तथा मृत्यु (अधिसमाहिते) = आश्रित हैं और (समुद्रः) = यह विशाल अन्तरिक्षस्थ मेष (यस्य) = जिसके महान् ब्रह्माण्डमय शरीर में (पुरुषे नाड्यः इव) = पुरुष के शरीर में रुधिरभरी नाड़ियों के समान (अधि समाहिता:) = स्थापित हैं, (तम्) = उसी को (स्कम्भम्) = सर्वाधार (ब्रूहि) = कहो। (सः एव) = वह स्कम्भ ही (स्वित्) = निश्चय से (कतम:) = अतिशयेन आनन्दमय है।
भावार्थ
वह 'स्कम्भ' प्रभु ही सर्वाधार है। उसी के आधार में 'अमृत, मृत्यु व समुद्र' समाहित हैं।
भाषार्थ
(यत्र पुरुष, अधि) जिस परमेश्वर-पुरुष में (अमृतम्, च) मोक्ष और (मृत्युः च) जन्म-मरण की व्यवस्था (समाहिते) स्थित है (समुद्रः) [नदियों समेत] समुद्र (यस्य) जिस का (नाड्यः) नाडीसंस्थान है, जो कि (पुरुषे अधि) परमेश्वर पुरुष में (समाहिताः) स्थित है, (तम्) उसे (स्कम्भम्) स्कम्भ (ब्रूहि) तू कह। (कतमः स्वित्, एव, सः) अर्थ देखो (मन्त्र ४)।
टिप्पणी
[पुरुषे = परमेश्वर-पुरुष, जो कि ब्रह्मपुर में निवास करता है, (अथर्व० १०/२/२८)। परमेश्वर पुरुष अमृतत्व अर्थात् मोक्ष का भी ईशान है, यथा "उतामृतत्वस्येशानः" (यजु० ३१।२)। नाड्यः = नाडीसंस्थान अर्थात् मानुष-शरीरस्थ रक्त-वाहिनी नाडियां। वेद में हृदय को 'समुद्र" भी कहते हैं। अतः "समुद्रः" में एक वचन, और "नाड्यः" में बहुवचन के प्रयोगों द्वारा हृदय और रक्तवाहिनी-नाडियां अभिप्रेत हैं। पृथिवीस्थ समुद्र-और-नदियां, मानुष-शरीरस्थ हृदय-और-नाडियां रूप कही है। स्कम्भ को पुरुष कहा है। अतः पृथिवीस्थ समुद्र और नदियों को, मानुष-पुरुष स्थित समुद्र और नाडियां रूप कहा है]
मन्त्रार्थ
(यत्र पुरुषे-अधि-अमृतं च-मृत्युः च समाहिते ) जिस पूर्ण पुरुष परमात्मा के अन्दर जीवों के लिये अमृत-मोक्षधाम और मृत्यु-मृत्युमय लोक समाश्रित हैं (यस्य समुद्र:-नाड्यः) जिसके आश्रित "यस्य हि सप्तम्यां षष्ठी" समुद्र अन्तरिक्ष-नाडियां अमृत धाम और मृत्युधाम के मध्ये जीवों के आने जाने को नाडिया:-नालियां-पगडंडियां हैं (स्कम्भतं. बूहि...) 'पूर्ववत्'॥१५॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(अमृतं च) अमृत, अमर जीवन और (मृत्युः च) मृत्यु दोनों (यत्र पुरुषे) जिस परम पुरुष में (अधि समाहिते) आश्रित हैं और (समुद्रः) समुद्र, महान् आकाश (यस्य) जिसके महान् ब्रह्माण्डमय शरीर में (पुरुषे नाड्य इव सम् आहिताः) पुरुष के शरीर में रुधिरभरी नाड़ियों के समान स्थित है (तं स्कम्भं ब्रूहि) उस स्कम्भ का उपदेश करो ? (कतमः स्वित् एव सः) वह कौनसा है ?
टिप्पणी
(द्वि०) ‘पुरुषश्च समाहितः’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Wherein immortality and death both abide in the Purusha, comprehended, whose arteries are the seas comprehended in the Purusha, of that Skambha, pray, speak to me, which one of all is that? Say it is Skambha, only that of all, the ultimate centre and circumference of existence.
Translation
Where the immortality (Amrta) as well death (mrtu) are set together in the Purusa (the Cosmic man); ocean is whose veins, that lie within the Purusa; tell me of that Skambha; which of so many, indeed, is He ?
Translation
Who out of many powers, tell me O learned! is that Supporting Divine Power who comprehends the death and immortality for mankind and who contains the gathered waters like his veins for mankind.
Translation
Who out of many, tell me, is that All-pervading God, Who comprehendeth, for mankind, both immortality and death, Who containeth for mankind the vast space as His veins?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१५−(यत्र) यस्मिन् परमात्मनि (अमृतम्) अमरत्वं पौरुषादिकम् (च च) (मृत्युः) मरणकारणमालस्यादिकम् (पुरुषे) मनुष्यनिमित्ते (अधि) सप्तम्यर्थानुवादी (समाहिते) सस्यक् स्थापिते (समुद्रः) अन्तरिक्षम्-निघ० १।३ (यस्य) (नाड्यः) नाड्यो यथा (पुरुषे) (अधि) अन्यत् पूर्ववत् ॥
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