Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 7 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 16
    ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः देवता - स्कन्धः, आत्मा छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
    71

    यस्य॒ चत॑स्रः प्र॒दिशो॑ ना॒ड्यस्तिष्ठ॑न्ति प्रथ॒माः। य॒ज्ञो यत्र॒ परा॑क्रान्तः स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । चत॑स्र: । प्र॒ऽदिश॑: । ना॒ड्य᳡: । तिष्ठ॑न्ति । प्र॒थ॒मा: । य॒ज्ञ: । यत्र॑ । परा॑ऽक्रान्त: । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य चतस्रः प्रदिशो नाड्यस्तिष्ठन्ति प्रथमाः। यज्ञो यत्र पराक्रान्तः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । चतस्र: । प्रऽदिश: । नाड्य: । तिष्ठन्ति । प्रथमा: । यज्ञ: । यत्र । पराऽक्रान्त: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 7; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।

    पदार्थ

    (चतस्रः) चारों (प्रदिशः) दिशाएँ (यस्य) जिस [परमेश्वर] की (प्रथमाः) मुख्य (नाड्यः) नाड़ियाँ [समान] (तिष्ठन्ति) हैं। (यत्र) जिस में (यज्ञः) यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] (पराक्रान्तः) पराक्रमयुक्त है, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥१६॥

    भावार्थ

    परमात्मा सब दिशाओं में व्यापकर श्रेष्ठ व्यवहार करनेवाले पुरुष को पराक्रमी बनाता है ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(यस्य) (चतस्रः) (प्रदिशः) पूर्वादयः (नाड्यः) (तिष्ठन्ति) सन्ति (प्रथमाः) मुख्याः (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (यत्र) परमात्मनि (पराक्रान्तः) पराक्रमयुक्तः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    चतस्त्रः प्रदिश:-यज्ञः

    पदार्थ

    १. (चतस्त्र: प्रदिश:) = ये चारों विशाल दिशाएँ (यस्य प्रथमाः नाड्य:) = जिसकी मुख्य नाड़ियों के समान (समाहिता:) = समाहित हुई (तिष्ठन्ति) = स्थित हैं। (यत्र) = जिसमें (यज्ञ) = श्रेष्ठतम कर्म-सृष्टिरूप यज्ञ-(पराक्रान्तः) = उत्कृष्टता से सम्पादित होता है। (तं स्कम्भ ब्रूहि) = उस सर्वाधार का तू प्रतिपादन कर । (स: एव) = वह स्कम्भ ही (स्वित्) = निश्चय से (कतमः) = अत्यन्त आनन्दमय है।

    भावार्थ

    उस विराट् पुरुष के शरीर की चार मुख्य नाड़ियों के समान ये चार दिशाएँ हैं। उस प्रभु से ही यज्ञादि उत्तम कर्मों का सम्पादन होता है। वे स्कम्भ नामक प्रभु अतिशयेन आनन्दमय है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यस्य) जिस की (चतस्रः प्रदिशः) चार दिशाएं (प्रथमाः) [चार] मुख्य (नाड्यः) नाडी रूप में (तिष्ठन्ति) स्थित हैं। (यत्र) जिसमें (यज्ञः) यज्ञ ने (पराक्रान्तः) निज पराक्रम किया है, (तम्, स्कम्भम्, ब्रूहि) उसे स्कम्भ तू कह (कतमः, स्वित्, एव, सः) अर्थ देखो (मन्त्र ४)

    टिप्पणी

    [मानुष शरीरस्थ चार मुख्य नाड़ियां, मानुष-हृदय सम्बन्धी हैं। हृदय के चार कोष्ठक होते हैं, (१) Right auricle, (२) Right ventricle, (३) Left auricle, (४) Left ventricle । Right auricles में शरीर की सिराओं का गन्दा रक्त आता है। यह दो सिराओं द्वारा आता है, जिन्हें कि Superior vena cava तथा Inferior vena cava कहते हैं। शरीर के अधोभाग से गन्दा रक्त, Inferior vena cava में इकट्ठा होकर Right auricle में आ गिरता है। शरीर के ऊपर के भाग से भी गन्दा रक्त, Superior vena cava में इकठ्ठा हो कर Right auricle में आ गिरता है। Right auricle जब गन्दे रक्त से भर जाता है तब यहां से गन्दा रक्त Right ventricle में जाता है। इसके भर जाने पर नाडी द्वारा गन्दा रक्त फेफड़ों में जाता है। फेफड़ों में शुद्ध हो कर शुद्धरक्त अन्य एक नाड़ी द्वारा Left auricle में आता है। यहां से शुद्धरक्त Left Ventricle में जाता है। यहां से शुद्धरक्त Artery मुख्य नाडी द्वारा समग्र शरीर में जाता है। इस प्रकार हृदय में चार मुख्य नाडियां होती हैं, (१) Superior vena cava, (२) Inferior vena cava; (३) गन्दे रक्त को फेफड़ों में भेजने वाली नाड़ी Pulmonary Artery, (४) शुद्ध रक्त को हृदय में लाने वाली नाड़ी Tulmonory vein । ये चार नाडियां मुख्य नाडियां हैं जोकि “चतस्रः प्रदिशः" की प्रतिरूपिणी हैं]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मन्त्रार्थ

    (यस्य चतस्र:-दिशः) जिसकी रची चारों दिशायें (प्रथमा:-चाडय:-तिष्ठन्ति) प्रथम प्रकट हुई समस्त लोकों के गतिक्रम के लिये चलने की पद्धतियां हैं (यत्र यज्ञः-पराक्रान्तः) जिसके आश्रय में समति यज्ञ सारी सृष्टि पसरी हुई है (स्कम्भं तं ब्रूहि-कतमः...) पूर्ववत् ॥१६॥

    टिप्पणी

    इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥

    विशेष

    ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    और (यस्य) जिसके विराट् रूप में (प्रदिशः) मुख्य दिशाएं (प्रथमाः नाड्यः) मुख्य नाड़ियों के समान (तिष्ठन्ति) विराजती हैं (यत्र) जिसमें (यज्ञः) यह विश्वरूप महान् यज्ञ (पराक्रान्तः) बड़ी उत्कृष्टता से सम्पादित होता है (तं स्कम्भं ब्रूहि) उस स्कम्भ का उपदेश कर। (कतमः स्वित् एव सः) बतला वह कौनसा है ?

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘प्रथसाः’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। ‘प्रप्यसाः’ इति प्रायशः। ‘प्रभ्यसाः’ इति लाक्षणिकं रूपम् प्रभ्यसाः प्रभीता इत्यर्थः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Skambha Sukta

    Meaning

    Whose veins and arteries are the four major quarters of space which abide in order, wherein nature’s yajna of the evolution of existence goes on and on, of that Skambha, pray, speak to me, which one of all is that? Say it is Skambha, only that of all, the ultimate centre and circumference of existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The four quarters (pradisah) stand out as whose most prominent arteries (nadyah); wherein the sacrifice (yajna) shows its might, tell me of that Skambha; which among so many, indeed, is He?

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Who out of many powers, tell me O learned! is that Supporting Divine power whose chief arteries stand as the four regions of the sky and in whom knowledge and power, integration, disintegration and balanced action have their might.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Who out of many is that All-pervading God, He Whose chief arteries are the sky’s four regions. He in Whom Sacrifice putteth forth its might?

    Footnote

    Four regions: North, East, South, West.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(यस्य) (चतस्रः) (प्रदिशः) पूर्वादयः (नाड्यः) (तिष्ठन्ति) सन्ति (प्रथमाः) मुख्याः (यज्ञः) श्रेष्ठव्यवहारः (यत्र) परमात्मनि (पराक्रान्तः) पराक्रमयुक्तः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top