अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 37
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
70
क॒थं वातो॒ नेल॑यति क॒थं न र॑मते॒ मनः॑। किमापः॑ स॒त्यं प्रेप्स॑न्ती॒र्नेल॑यन्ति क॒दा च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठक॒थम् । वात॑: । न । इ॒ल॒य॒ति॒ । क॒थम् । न । र॒म॒ते॒ । मन॑: । किम् । आप॑: । स॒त्यम् । प्र॒ऽईप्स॑न्ती: । न । इ॒ल॒य॒न्ति॒ । क॒दा । च॒न ॥७.३७॥
स्वर रहित मन्त्र
कथं वातो नेलयति कथं न रमते मनः। किमापः सत्यं प्रेप्सन्तीर्नेलयन्ति कदा चन ॥
स्वर रहित पद पाठकथम् । वात: । न । इलयति । कथम् । न । रमते । मन: । किम् । आप: । सत्यम् । प्रऽईप्सन्ती: । न । इलयन्ति । कदा । चन ॥७.३७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(कथम्) कैसे (वातः) वायु (न) नहीं (इलयति) सोता है, (कथम्) कैसे (मनः) मन (न) नहीं (रमते) ठहरता है। (किम्) क्यों (आपः) प्रजाएँ वा जल (सत्यम्) सत्य [ईश्वरनियम] की (प्रेप्सन्तीः) पाने की इच्छा करते हुए (कदा चन) कभी भी (न) नहीं (इलयन्ति) सोते हैं ॥३७॥
भावार्थ
यह वायु, मन, सब प्राणी वा जल आदि क्यों अपना कर्तव्य करते रहते हैं, इसलिये कि एक परब्रह्म संसार में व्याप कर सबको चला रहा है-अगला मन्त्र देखो ॥३७॥
टिप्पणी
३७−(कथम्) केन प्रकारेण (वातः) वायुः (न) निषेधे (इलयति) इल स्वप्नक्षेपणयोः। स्वपिति (कथम्) (न) (रमते) उपरमति। तिष्ठति (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकमन्तःकरणम् (किम्) (आपः) प्रजाः। जलानि (सत्यम्) परमात्मनियमम् (प्रेप्सन्तीः) प्राप्तुमिच्छन्त्यः (न) (इलयन्ति) शेरते (कदा चन) कस्मिन्नपि काले ॥
विषय
वातः, मनः, अपः
पदार्थ
१. (कथम्) = क्यों (वात:) = वायु (न इलयति) = स्थिर होकर शान्त [keep still, become quite] नहीं होता? (कथम्) = क्योंकर (मन: न रमते) = यह मन कहीं भी स्थिरता से रमता नहीं? (किम् सत्यं प्रेप्सन्ती:) = किस सत्य को प्रात करने की कामनावाले हुए-हुए ये (आप:) = जल (कदाचन) = कभी भी (न इलयन्ति) = स्थिर होकर शान्त नहीं होते? २. नितरन्तर चल रही वायु को देखकर जिज्ञासु के हृदय में जिज्ञासा होती है कि वायु किधर भागा चला जा रहा है? इसी प्रकार ये जल किस सत्य की खोज में निरन्तर बहते चल रहे हैं? यह मन भी अन्ततोगत्वा कहाँ रति का अनुभव करेगा? संसार के विषय तो कुछ ही देर बाद उसे निर्विण्ण कर डालते हैं।
भावार्थ
जिज्ञासु को इस निरन्तर बहते वायु व जलों को देखकर उत्कण्ठा होती है कि ये किधर भागे चले जा रहे हैं? मन भी किसी एक स्थान में रति का अनुभव क्यों नहीं करता?
भाषार्थ
(कथम्) क्यों (वातः) वायु (न इलयति) नहीं निद्रित होती, (कथम्) क्यों (मनः) मन (न रमते) आराम नहीं करता, सदा चञ्चल रहता है। (आपः) जल (किम्) किस (सत्यम्) सत्य को (प्रेप्सन्तीः) चाहते हुए (कदाचन) कभी भी (न इलयन्ति) नहीं निद्रित होते।
टिप्पणी
[इलयति = इल स्वप्ने (तुदादिः), स्वप्न = निद्रा। आपः के सम्बन्ध में "सत्यम्" के प्रयोग द्वारा यह दर्शाया है कि यह "सत्यब्रह्म" या सत्यस्कम्भ को चाहते हुए, उस की खोज में, सदा सक्रिय रहते हैं। यह उद्देश्म वात के उन्निद्रित होने और मन के आराम न करने का भी है]।
मन्त्रार्थ
(वातः कथं न इलयति) गतिशील वायु कैसे गति न कर कब अपनी गतिप्रवृत्ति को रोक सके (मनः कथं-न रमते) मन कैसे एक वस्तु में रमण नहीं कर रहा है- कैसे चञ्चलता को छोड़ दे (आपः किं सत्यं प्रप्सन्ती:-न कदाचनइलयन्ति ) जलधारायें-नदियां किस सत्य को चाहती हुई किसी समय गति न कर सकें अर्थात् इन सबका सत्य स्कम्भ जगदाधार परमात्मा है उसके नियम का आचरण करते हुये गति कर रहे हैं यह आकांक्षा है ॥३७॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है, परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
(वातः) वायु (कथं न) क्यों नहीं (ईलयति) चैन पाता ? (मनः) मन (कथं न रमते) क्यों नहीं एक ही वस्तु में रमता ? वह क्यों चंचल है ? (सत्यम्) उस सत्यस्वरूप को ही (प्रेप्सन्तीः) प्राप्त होने के लिये उत्सुक होकर क्या (आपः) जल भी (कदाचन) कभी (न ईलयन्ति) विश्राम नहीं पाते ?
टिप्पणी
(च०) ‘प्रचक्रमति सर्वदा’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Why doesn’t the wind ever go to sleep? How is it that the mind never stops still? Do the waters, as also the acts of will and nature, seeking and striving in search of the truth of reality, ever rest and come to a stand still? (No! Why?)
Translation
How is it that the wind (vātah) never rests still ? How is that the mind (manah) never rests still? Seeking what truth (satyam), the waters (āpah) never rest still ?
Translation
Why does wind move incessantly, why does not the mind takes rest and why do not the waters desirous of proving their real nature and operation ever repose.
Translation
Why doth the wind move ceaselessly? Why doth the mind take no rest? Why do the waters following the natural law of their being, never at any time repose?
Footnote
Air, mind, waters perform their tasks, as ordained by God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३७−(कथम्) केन प्रकारेण (वातः) वायुः (न) निषेधे (इलयति) इल स्वप्नक्षेपणयोः। स्वपिति (कथम्) (न) (रमते) उपरमति। तिष्ठति (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकमन्तःकरणम् (किम्) (आपः) प्रजाः। जलानि (सत्यम्) परमात्मनियमम् (प्रेप्सन्तीः) प्राप्तुमिच्छन्त्यः (न) (इलयन्ति) शेरते (कदा चन) कस्मिन्नपि काले ॥
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