अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 4
ऋषिः - अथर्वा, क्षुद्रः
देवता - स्कन्धः, आत्मा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सर्वाधारवर्णन सूक्त
82
क्व प्रेप्स॑न्दीप्यत ऊ॒र्ध्वो अ॒ग्निः क्व प्रेप्स॑न्पवते मात॒रिश्वा॑। यत्र॒ प्रेप्स॑न्तीरभि॒यन्त्या॒वृतः॑ स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः ॥
स्वर सहित पद पाठक्व᳡ । प्र॒ऽईप्स॑न् । दी॒प्य॒ते॒ । ऊ॒र्ध्व: । अ॒ग्नि: । क्व᳡ । प्र॒ऽईप्स॑न् । प॒व॒ते॒ । मा॒त॒रि॒श्वा॑ । यत्र॑ । प्र॒ऽईप्स॑न्ती: । अ॒भि॒ऽयन्ति॑ । आ॒ऽवृत॑: । स्क॒म्भम् । तम् । ब्रू॒हि॒ । क॒त॒म: । स्वि॒त् । ए॒व । स: ॥७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
क्व प्रेप्सन्दीप्यत ऊर्ध्वो अग्निः क्व प्रेप्सन्पवते मातरिश्वा। यत्र प्रेप्सन्तीरभियन्त्यावृतः स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥
स्वर रहित पद पाठक्व । प्रऽईप्सन् । दीप्यते । ऊर्ध्व: । अग्नि: । क्व । प्रऽईप्सन् । पवते । मातरिश्वा । यत्र । प्रऽईप्सन्ती: । अभिऽयन्ति । आऽवृत: । स्कम्भम् । तम् । ब्रूहि । कतम: । स्वित् । एव । स: ॥७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ब्रह्म के स्वरूप के विचार का उपदेश।
पदार्थ
(क्व) कहाँ को (प्रेप्सन्) पाने की इच्छा करता हुआ, (ऊर्ध्वः) ऊँचा होता हुआ (अग्निः) अग्नि (दीप्यते) चमकता है, (क्व) कहाँ को (प्रेप्सन्) पाने की इच्छा करता हुआ (मातरिश्वा) आकाश में गतिवाले [वायु] (पवते) झोंके लेता है। (यत्र) जहाँ (प्रेप्सन्तीः) पाने की इच्छा करती हुई (आवृतः) अनेक घूमें (अभियन्ति) सब ओर से मिलती हैं, (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा (एव) निश्चय करके है ? [इसका उत्तर] (तम्) उसको (स्कम्भम्) स्कम्भ [धारण करनेवाला परमात्मा] (ब्रूहि) तू कह ॥४॥
भावार्थ
अग्नि, वायु और अन्य प्राकृतिक पदार्थ कार्य और कारण रूप से परमात्मा में ही आश्रित होकर रहते हैं ॥४॥
टिप्पणी
४−(क्व) कुत्र (प्रेप्सन्) प्र+आप्लृ व्याप्तौ-सन्, शतृ। प्राप्तुमिच्छन् (ऊर्ध्वः) उच्चगतिः सन् (अग्निः) (पवते) म० २। आकाशे गन्ता वायुः (यत्र) यस्मिन् (प्रेप्सन्तीः) प्राप्तुं कामयमानाः (अभियन्ति) सर्वतः प्राप्नुवन्ति (आवृतः) समन्ताद् वर्तनशीला मार्गाः (स्कम्भम्) म० २। स्तम्भम्। सर्वाधारकं परमेश्वरम् (तम्) निर्दिष्टम् (ब्रूहि) कथय (कतमः) सर्वेषां मध्ये कः (स्वित्) अवधारणे (एव) निश्चयेन (सः)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
'सूर्य, वायु व जल' कहाँ चले जा रहे हैं?
पदार्थ
१. यह (ऊर्ध्वः अग्नि:) = ऊपर युलोक में वर्तमान अग्नि, अर्थात् सूर्य (क्व प्रेप्सन्) = कहाँ पहुँचने की कामना करता हुआ (दीप्यते) = चमक रहा है? और (क्व प्रेप्सन्) = कहाँ पहुँचने की कामना करता हुआ यह (मातरिश्वा) = वायु (पवते) = बह रहा है? २. (यत्र) = जहाँ (प्रेप्सन्ती:) = पहुँचने की कामना करती हुई (आवृतः) = चारों ओर वर्तनवाली ये जलधाराएँ अभियन्ति चारों ओर [पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में] गतिवाली होती हैं, (तम्) = उसे (स्कम्भम्) = स्कम्भ-सर्वाधार (ब्रूहि) = कहो। (स:) = वह (स्वित्) = निश्चय से (क-तमः एव) = अतिशयेन आनन्दमय ही है।
भावार्थ
ये 'सूर्य, वायु व जल' न जाने कहाँ पहुँचने की कामना करते हुए निरन्तर गतिमय हैं? वस्तुत: जिसके आधार में ये सब गतिवाले हो रहे हैं, वे सर्वाधार प्रभु ही हैं वे 'स्कम्भ' हैं। निश्चय से वे परमानन्दमय हैं।
भाषार्थ
(क्व) कहां (प्रेप्सन्) जाना चाहती हुई (अग्निः) अग्नि (ऊर्ध्वः) ऊपर उठी ज्वाला में (दीप्यते) प्रदीप्त होती है, जलती है, (क्व) कहां (प्रेप्सन्) जाना चाहती हुई (मातरिश्वा) वायु (पवते) बहती है। (यत्र) जहां (प्रेप्सन्तीः) जाना चाहते हुए (आवृतः) जलभंवर (अभि यन्ति) घूमते हुए जाते हैं, (तम्) उसे (स्कम्भम् ब्रूहि) [हे प्रश्न करने वाले !] तू स्कम्भ कह। (सः) वह (कतमः स्विद् एव) अतिशय सुखस्वरूप ही है, [उस में दुःख का लेश भी नहीं] वह आनन्दरूप है।
टिप्पणी
[मातरिश्वा, देखो मन्त्र (२)। कतमः स्विद् = अथवा "वह कौन सा ही है ? उसे स्कम्भ कह"]
मन्त्रार्थ
(क्व-प्रेप्सन्-ऊर्ध्वः-अग्निः-दीप्यते ) किसी देव एक देव में प्रेप्सा-प्राप्ति की इच्छा करता हुआ सा ऊँचा हुआ सूर्यरूप अग्नि या ऊर्ध्वमुख हुआ पार्थिव अग्नि दीप्त होता है (क्व प्रेप्सन्-मातरिश्वा पवते) किसी भी देव में प्रेप्सा-प्राप्ति की इच्छा करता हुआ वायु चलता है (यत्र-श्रावृतः-प्रेप्सन्ती:अभियन्ति) जिस देव में प्राप्ति की इच्छा करती हुई घूमने वाली जल धारायें आगे आगे जारही है (तं स्कम्भं-ब्रूहि कतमः-स्वित्-एव सः) उस आधार भूत देव को बता-विचार हे ऋषे बहुतों में कौन सा या सुखतम ही है ॥४॥
टिप्पणी
इस सूक्त पर सायणभाष्य नहीं है,परन्तु इस पर टिप्पणी में कहा है कि स्कम्भ इति सनातनतमो देवो "ब्रह्मणो प्याद्यभूतः । अतो ज्येष्ठं ब्रह्म इति तस्य संज्ञा । विराडपि तस्मिन्नेव समाहितः” । अर्थात् स्कम्भ यह अत्यन्त सनातन देव है जो ब्रह्म से भी आदि हैं अतः ज्येष्ठ ब्रह्म यह उसका नाम है विराड् भी उसमें समाहित है । यह सायण का विचार है ॥
विशेष
ऋषिः—अथर्वा ( स्थिर-योगयुक्त ) देवनाः - स्कम्भः, आत्मा वा ( स्कम्भ-विश्व का खम्भा या स्कम्मरूप आत्मा-चेतन तत्त्व-परमात्मा )
विषय
ज्येष्ठ ब्रह्म या स्कम्भ का स्वरूप वर्णन।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुष ! बतला ? (ऊर्ध्वः अग्निः) ऊपर विराजमान वह महान् अग्नि, सूर्य (क्व प्रेप्सन्) किस में अपनी अभिलाषा बांधे, या कहां जाना चाहता हुआ (दीप्यते) प्रकाशित हो रहा है ? और (मातरिश्वा) वायुः (क्व प्रेप्सन्) कहां पहुंचने की अभिलाषा से (पवते) निरन्तर बहता है ? (आवृतः) ये सब मार्ग (क्व प्रेप्सन्तीः) कहां पहुंचना चाहते हुए (अभि यन्ति) चले चले जा रहे हैं ? हे विद्वन् ! तू (तं) उस (स्कम्भम्) सर्व जगत् के आश्रयभूत स्तम्भ या ‘स्कम्भ’ का (ब्रूहि) उपदेश कर (सः) वह (कतमः स्वित्) कौन सा पदार्थ है ?
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा क्षुद्र ऋषिः। मन्त्रोक्तः स्कम्भ अध्यात्मं वा देवता। स्कम्भ सूक्तम्॥ १ विराट् जगती, २, ८ भुरिजौ, ७, १३ परोष्णिक्, ११, १५, २०, २२, ३७, ३९ उपरिष्टात् ज्योतिर्जगत्यः, १०, १४, १६, १८ उपरिष्टानुबृहत्यः, १७ त्र्यवसानाषटपदा जगती, २१ बृहतीगर्भा अनुष्टुप्, २३, ३०, ३७, ४० अनुष्टुभः, ३१ मध्येज्योतिर्जगती, ३२, ३४, ३६ उपरिष्टाद् विराड् बृहत्यः, ३३ परा विराड् अनुष्टुप्, ३५ चतुष्पदा जगती, ३८, ३-६, ९, १२, १९, ४०, ४२-४३ त्रिष्टुभः, ४१ आर्षी त्रिपाद् गायत्री, ४४ द्विपदा वा पञ्चपदां निवृत् पदपंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Skambha Sukta
Meaning
Whitherward does the high fire of the sun bum and radiate, seeking and striving for what? Whitherward does the spatial wind of energy blow, seeking and striving for what? Witherward do the cosmic whirlpools of stars, planets and galaxies turn, and turn round and round, seeking and striving for what? Speak of that Skambha, that centre-hold explosive, to me, which one is that? Say it is Skambha, only that of all, ultimate centre and the circumference.
Translation
Whither desiring to attain, the fire (Agni) flame upwards, whither desiring to attain blows the impetuous wind; whither desiring to attain the eddying streams flow; please tell me of that Skambha; which of so many indeed, is He?
Translation
Whitherward destined to proceed the sun shines above and with what destination to reach the wind blows? Who out of other powers tell me, O learned! is that Supporting Divine Power to whom with longing to the turning pathways?
Translation
Whitherward Yearning blazeth the lofty Sun? Whitherward Yearning bloweth wind? Who out of many, tell me, O learned person, is that All-pervading God, to Whom with longing flow the streams of water?
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(क्व) कुत्र (प्रेप्सन्) प्र+आप्लृ व्याप्तौ-सन्, शतृ। प्राप्तुमिच्छन् (ऊर्ध्वः) उच्चगतिः सन् (अग्निः) (पवते) म० २। आकाशे गन्ता वायुः (यत्र) यस्मिन् (प्रेप्सन्तीः) प्राप्तुं कामयमानाः (अभियन्ति) सर्वतः प्राप्नुवन्ति (आवृतः) समन्ताद् वर्तनशीला मार्गाः (स्कम्भम्) म० २। स्तम्भम्। सर्वाधारकं परमेश्वरम् (तम्) निर्दिष्टम् (ब्रूहि) कथय (कतमः) सर्वेषां मध्ये कः (स्वित्) अवधारणे (एव) निश्चयेन (सः)। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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