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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त

    यद्ये॒यथ॑ द्वि॒पदी॒ चतु॑ष्पदी कृत्या॒कृता॒ संभृ॑ता वि॒श्वरू॑पा। सेतो॒ष्टाप॑दी भू॒त्वा पुनः॒ परे॑हि दुच्छुने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । आ॒ऽइ॒यथ॑ । द्वि॒ऽपदी॑ । चतु॑:ऽपदी । कृ॒त्या॒ऽकृता॑ । सम्ऽभृ॑ता । वि॒श्वऽरू॑पा । सा । इ॒त: । अ॒ष्टाऽप॑दी । भू॒त्वा । पुन॑: । परा॑ । इ॒हि॒ । दु॒च्छु॒ने॒ ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्येयथ द्विपदी चतुष्पदी कृत्याकृता संभृता विश्वरूपा। सेतोष्टापदी भूत्वा पुनः परेहि दुच्छुने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । आऽइयथ । द्विऽपदी । चतु:ऽपदी । कृत्याऽकृता । सम्ऽभृता । विश्वऽरूपा । सा । इत: । अष्टाऽपदी । भूत्वा । पुन: । परा । इहि । दुच्छुने ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 24

    भाषार्थ -
    [हे परकीय सेना] (यदि एयथ) यदि तू आई है (द्विपदी) दो अङ्गों वाली, (कुत्याकृता) हिंस्रसेना के रचयिता द्वारा (संभृता) युद्ध के संभारों द्वारा सम्यक् परिपुष्ट हुई या (विश्वरूपा) समग्ररूपों वाली अर्थात् (चतुष्पदी) चार अङ्गों वाली चतुरङ्गिणी सेना के रूप में आई है (सा) वह तू (इतः) यहां से (अष्टापदी भूत्वा) आठ अङ्गों वाली होकर (पुनः) तू फिर (परा इहि) परे चली जा, (दुच्छुने) हे सुख को दुःख बनाने वाली या दुष्ट-कुतियारूप सेना !

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