अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
प्र॑ती॒चीन॑ आङ्गिर॒सोऽध्य॑क्षो नः पु॒रोहि॑तः। प्र॒तीचीः॑ कृ॒त्या आ॒कृत्या॒मून्कृ॑त्या॒कृतो॑ जहि ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ती॒चीन॑: । अ॒ङ्गि॒र॒स: । अधि॑ऽअक्ष: । न॒: । पु॒र:ऽहि॑त: । प्र॒तीची॑: । कृ॒त्या: । आ॒ऽकृत्य॑ । अ॒मून् । कृ॒त्या॒ऽकृत॑: । ज॒हि॒ ॥१.६॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रतीचीन आङ्गिरसोऽध्यक्षो नः पुरोहितः। प्रतीचीः कृत्या आकृत्यामून्कृत्याकृतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठप्रतीचीन: । अङ्गिरस: । अधिऽअक्ष: । न: । पुर:ऽहित: । प्रतीची: । कृत्या: । आऽकृत्य । अमून् । कृत्याऽकृत: । जहि ॥१.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(नः) हमारा (अध्यक्षः) सेनाध्यक्ष (पुरोहितः) सेना के अग्रभाग में निहित है, स्थापित किया हुआ है, (प्रतीचीनः) वह शत्रुसेना को पराङ्मुख कर देता है, (आङ्गिरसः) सेनाङ्गों का ज्ञाता है। (कृत्याः) शत्रु की हिंस्र सेनाओं को (प्रतीचीः) पराङ्मुख (आकृत्य) करके (अमून् सेनाकृतः) उन सेनाध्यक्षों१ और नायकों को (जहि) हे हमारे सेनाध्यक्ष! तू मार डाल।
टिप्पणी -
[सैनिक तो आज्ञा से बन्धे हुए युद्धस्थली पर आते हैं। असल में युद्ध के लिये सेनापति आदि अधिकारी ही अपराधी होते हैं, इस लिये उन्हीं को मारने का कथन हुआ है। जैसे कि अथर्ववेद में अन्यत्र भी आदेश मिलता है। यथा-जय अमित्रान् प्रपद्यस्व जह्येषां वरं वरं मामीषां मोचिकश्चन" ॥ (३।१९।८) "अमित्रों पर विजय पा, और अमित्र सेना में प्रवेश पा, इनमें से प्रत्येक श्रेष्ठ अधिकारी को मार डाल, इन में से कोई भी श्रेष्ठ अधिकारी बच न पाए"। इस प्रकार वेदाज्ञानुसार, विजयानन्तर, सैनिकों का यथा सम्भव हनन न करते हुए, सेना के मुख्यमुख्य अधिकारियों का हनन करना चाहिये।