अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 31
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
कृ॑त्या॒कृतो॑ वल॒गिनो॑ऽभिनिष्का॒रिणः॑ प्र॒जाम्। मृ॑णी॒हि कृ॑त्ये॒ मोच्छि॑षो॒ऽमून्कृ॑त्या॒कृतो॑ जहि ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒त्या॒ऽकृत॑: । व॒ल॒गिन॑: । अ॒भि॒ऽनि॒ष्का॒रिण॑: । प्र॒ऽजाम् । मृ॒णी॒हि । कृ॒त्ये॒ । मा । उत् । शि॒ष॒: । अ॒मून् । कृ॒त्या॒ऽकृत॑: । ज॒हि॒ ॥१.३१॥
स्वर रहित मन्त्र
कृत्याकृतो वलगिनोऽभिनिष्कारिणः प्रजाम्। मृणीहि कृत्ये मोच्छिषोऽमून्कृत्याकृतो जहि ॥
स्वर रहित पद पाठकृत्याऽकृत: । वलगिन: । अभिऽनिष्कारिण: । प्रऽजाम् । मृणीहि । कृत्ये । मा । उत् । शिष: । अमून् । कृत्याऽकृत: । जहि ॥१.३१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 31
भाषार्थ -
(कृत्ये) हे हमारी हिंस्र सेना ! (कृत्याकृतः) परकीय हिंस्र सेनाओं के रचयिता की, (वलगिनः) वलय में गति करने वाले विस्फोटकों के स्वामी की, (अभिनिष्कारिणः) हमें नष्ट करने वाले या अपमानित करने वाले की (प्रजाम्) प्रजा को (मृणीहि) मार डाल और (अमून्) उन (कृत्याकृतः) हिंस्रसेनाओं-के-रचयिताओं का (जहि) हनन कर (मा उच्छिषः) उन में से किसी को शेष न रहने दे।
टिप्पणी -
[शत्रु सेनाओं को बार-बार हट जाने को प्रेरित करने पर भी जब ये हस्तगत स्थानों को छोड़ जाने में सहमत नहीं हुई, तब निज सेनाओं को आज्ञा दी कि शत्रु सेनाओं के रचयिताओं के राष्ट्र में प्रवेश कर उन की प्रजा का, और रचयिताओं का वह हनन करे]