अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
अ॒भ्यक्ताक्ता॒ स्व॑रंकृता॒ सर्वं॒ भर॑न्ती दुरि॒तं परे॑हि। जा॑नीहि कृत्ये क॒र्तारं॑ दुहि॒तेव॑ पि॒तरं॒ स्वम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भिऽअ॑क्ता । आऽअ॑क्ता । सुऽअ॑रंकृता । सर्व॑म् । भर॑न्ती । दु॒:ऽइ॒तम् । परा॑ । इ॒हि॒ । जा॒नी॒हि॒ । कृ॒त्ये॒ । क॒र्तार॑म् । दु॒हि॒ताऽइ॑व । पि॒तर॑म् । स्वम् ॥१.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यक्ताक्ता स्वरंकृता सर्वं भरन्ती दुरितं परेहि। जानीहि कृत्ये कर्तारं दुहितेव पितरं स्वम् ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽअक्ता । आऽअक्ता । सुऽअरंकृता । सर्वम् । भरन्ती । दु:ऽइतम् । परा । इहि । जानीहि । कृत्ये । कर्तारम् । दुहिताऽइव । पितरम् । स्वम् ॥१.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(स्वरंकृता) उत्तम प्रकार से अलंकृत हुई भी [हे परकीया चतुरङ्गिणी सेना] तू (अभ्यक्त) [रक्त से] लिपी हुई, और (अक्ता) जल द्वारा सिंचित हुई, (सर्वम्, दुरितम्) तथा युद्ध के सब दुष्परिणामों को (भरन्ती) धारण करती हुई (परा इहि) हमारे राष्ट्र से परे चली जा। (कृत्ये) हे हिंस्रसेना ! (कर्तारं जानीहि) तू निजकर्ता को आश्रय जान, (इव) जैसे कि (दुहिता) पुत्री (स्वम् पितरम्) अपने पिता को आश्रयरूप में जानती है।
टिप्पणी -
[परकीय चतुरङ्गिणी सेना के दो तरीके हैं, लौट जाने में, एक यह कि निज राष्ट्र रक्षक सेनाध्यक्ष द्वारा खदेड़ी गई, बिना युद्ध किये, वह वापिस लौट जाय। दूसरा यह कि वह युद्ध में घायल हो कर पराजित हुई अपने राष्ट्र में चली जाय। पहिले तरीके का वर्णन मन्त्र २४ में हुआ है, और दूसरे का मन्त्र २५ में अक्ता (मन्त्र ९)]।