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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 25
    ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
    79

    अ॒भ्यक्ताक्ता॒ स्व॑रंकृता॒ सर्वं॒ भर॑न्ती दुरि॒तं परे॑हि। जा॑नीहि कृत्ये क॒र्तारं॑ दुहि॒तेव॑ पि॒तरं॒ स्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भिऽअ॑क्ता । आऽअ॑क्ता । सुऽअ॑रंकृता । सर्व॑म् । भर॑न्ती । दु॒:ऽइ॒तम् । परा॑ । इ॒हि॒ । जा॒नी॒हि॒ । कृ॒त्ये॒ । क॒र्तार॑म् । दु॒हि॒ताऽइ॑व । पि॒तर॑म् । स्वम् ॥१.२५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यक्ताक्ता स्वरंकृता सर्वं भरन्ती दुरितं परेहि। जानीहि कृत्ये कर्तारं दुहितेव पितरं स्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽअक्ता । आऽअक्ता । सुऽअरंकृता । सर्वम् । भरन्ती । दु:ऽइतम् । परा । इहि । जानीहि । कृत्ये । कर्तारम् । दुहिताऽइव । पितरम् । स्वम् ॥१.२५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 25
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।

    पदार्थ

    (अभ्यक्ता) मली गयी, (आक्ता) चिकनी की गयी, (स्वरङ्कृता) भले प्रकार सजाई गयी, (सर्वम्) प्रत्येक (दुरितम्) सङ्कट को (भरन्ती) धारण करती हुई तू (परा इहि) चली जा। (कृत्ये) हे हिंसा ! तू (कर्तारम्) अपने बनानेवाले को (जानीहि) जान, (इव) जैसे (दुहिता) पुत्री (स्वम् पितरम्) अपने पिता को [जानती है] ॥२५॥

    भावार्थ

    जो शत्रु लोग छल करके दुःख देनेवाली क्रिया को सुखदायी दिखावें, विद्वान् उस भेद को जानकर दुष्टों को दण्ड देवें ॥२५॥

    टिप्पणी

    २५−(अभ्यक्ता) अञ्जू-क्त। अभितो मर्दिता (आक्ता) आङ् अञ्जू-क्त। समन्तात् स्निग्धा (स्वरङ्कृता) सुभूषिता (सर्वम्) (भरन्ती) धरन्ती (दुरितम्) कष्टम् (परेहि) (जानीहि) (कृत्ये) हे हिंसाक्रिये (कर्तारम्) रचयितारम् (दुहिता इव) पुत्री यथा (पितरम्, स्वम्) ॥

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    विषय

    अभ्यक्ता, अक्ता, स्वरंकृता

    पदार्थ

    १. (अभ्यक्ता) = चन्दनादि लेप से सब प्रकार से सुन्दर, (अक्ता) = तैलादि से मर्दित, (सु अरंकृता) = उत्तम रीति से आभूषणों से सुसज्जित होकर भी वेश्या के समान (सर्वं दुरितं भरन्ती) = सब दुरित [दुराचरण] को अपने में धारण करती हुई तू हे कृत्ये! (परा इहि) = हमसे दूर जा। २. हे (कृत्ये) = छेदन-क्रिये! तू उसी प्रकार (कर्तारं जानीहि) = अपने उत्पादक को जान, (इव) = जैसेकि (दुहिता स्वं पितरम्) = लड़की अपने पिता को ही समझती है, पति से लौटाई हुई वह पिता के पास ही रहती है और पिता का ही व्यय कराती है। जैसे दुहिता पिता के पास लौट आती है, उसी प्रकार हे कृत्ये! तू कर्ता के पास ही लौट जा।

    भावार्थ

    बड़ी सुन्दर आकृति की कृत्या का प्रयोग भी कर्ता के समीप ही लौट जाए। यह सुन्दराकृति वेश्या के समान विनाशक ही है।

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    भाषार्थ

    (स्वरंकृता) उत्तम प्रकार से अलंकृत हुई भी [हे परकीया चतुरङ्गिणी सेना] तू (अभ्यक्त) [रक्त से] लिपी हुई, और (अक्ता) जल द्वारा सिंचित हुई, (सर्वम्, दुरितम्) तथा युद्ध के सब दुष्परिणामों को (भरन्ती) धारण करती हुई (परा इहि) हमारे राष्ट्र से परे चली जा। (कृत्ये) हे हिंस्रसेना ! (कर्तारं जानीहि) तू निजकर्ता को आश्रय जान, (इव) जैसे कि (दुहिता) पुत्री (स्वम् पितरम्) अपने पिता को आश्रयरूप में जानती है।

    टिप्पणी

    [परकीय चतुरङ्गिणी सेना के दो तरीके हैं, लौट जाने में, एक यह कि निज राष्ट्र रक्षक सेनाध्यक्ष द्वारा खदेड़ी गई, बिना युद्ध किये, वह वापिस लौट जाय। दूसरा यह कि वह युद्ध में घायल हो कर पराजित हुई अपने राष्ट्र में चली जाय। पहिले तरीके का वर्णन मन्त्र २४ में हुआ है, और दूसरे का मन्त्र २५ में अक्ता (मन्त्र ९)]।

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    विषय

    घातक प्रयोगों का दमन।

    भावार्थ

    (अभ्यक्ता) सब प्रकार से चन्दनादि लेप से सुन्दर (अक्ता) तैल आदि से मर्दित, (सु-अरंकृता) उत्तम रीति से आभूषणों से सुसज्जित होकर भी वेश्या के समान (सर्वं) सब प्रकार के (दुरितम्) दुष्टाचारों और दुर्व्यसनों को अपने भीतर तू (भरन्ती) धारण करती है। तू ऊपर से सुन्दर और भीतर से कुत्सित है। तू (परा इहि) दूर जा। हे कृत्ये ! (दुहिता स्वम् पितरम् इव) जिस प्रकार कन्या अपने पिता को ही समझती है और उसी के आश्रय रहती उसी का व्यय कराती है उसी प्रकार तू (कर्तारं जानीहि) अपने उत्पादक को जान, उसी के पास रह।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रत्यंगिरसो ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १ महाबृहती, २ विराण्नामगायत्री, ९ पथ्यापंक्तिः, १२ पंक्तिः, १३ उरोबृहती, १५ विराड् जगती, १७ प्रस्तारपंक्तिः, २० विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १६, १८ त्रिष्टुभौ, १९ चतुष्पदा जगती, २२ एकावसाना द्विपदाआर्ची उष्णिक्, २३ त्रिपदा भुरिग् विषमगायत्री, २४ प्रस्तारपंक्तिः, २८ त्रिपदा गायत्री, २९ ज्योतिष्मती जगती, ३२ द्व्यनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती, ३-११, १४, २२, २१, २५-२७, ३०, ३१ अनुष्टुभः। द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil Designs

    Meaning

    O spirit of evil and mischief, adorned, anointed and beautifully prepared for departure, bearing all evil and mischief as your baggage, go far away, know and remember your creator, and go to him as a daughter to your own father.

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    Translation

    Well-anointed and polished, nicely adorned, bearing all misery, go away. O harmful design, (go and) recognize your fashioner, just like a daughter her father.

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    Translation

    Let this device which is pointed, balmed and well-decorated, possessing all sorts of evils go and know its maker as the daughter knows her father.

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    Translation

    Anointed, balmed, and well adorned, bearing all trouble with thee, go. Even as a daughter knows her sire, so know thy maker, O violence, thou!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २५−(अभ्यक्ता) अञ्जू-क्त। अभितो मर्दिता (आक्ता) आङ् अञ्जू-क्त। समन्तात् स्निग्धा (स्वरङ्कृता) सुभूषिता (सर्वम्) (भरन्ती) धरन्ती (दुरितम्) कष्टम् (परेहि) (जानीहि) (कृत्ये) हे हिंसाक्रिये (कर्तारम्) रचयितारम् (दुहिता इव) पुत्री यथा (पितरम्, स्वम्) ॥

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