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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
    188

    यां ते॑ ब॒र्हिषि॒ यां श्म॑शा॒ने क्षेत्रे॑ कृ॒त्यां व॑ल॒गं वा॑ निच॒ख्नुः। अ॒ग्नौ वा॑ त्वा॒ गार्ह॑पत्येऽभिचे॒रुः पाकं॒ सन्तं॒ धीर॑तरा अना॒गस॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । ते॒ । ब॒र्हिष‍ि॑ । याम् । श्म॒शा॒ने । क्षेत्रे॑ । कृ॒त्याम् । व॒ल॒गम् । वा॒ । नि॒ऽच॒ख्‍नु: । अ॒ग्नौ । वा॒ । त्वा॒ । गार्ह॑ऽपत्ये । अ॒भि॒ऽचे॒रु: । पाक॑म् । सन्त॑म् । धीर॑ऽतरा: । अ॒ना॒गस॑म् ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां ते बर्हिषि यां श्मशाने क्षेत्रे कृत्यां वलगं वा निचख्नुः। अग्नौ वा त्वा गार्हपत्येऽभिचेरुः पाकं सन्तं धीरतरा अनागसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । ते । बर्हिष‍ि । याम् । श्मशाने । क्षेत्रे । कृत्याम् । वलगम् । वा । निऽचख्‍नु: । अग्नौ । वा । त्वा । गार्हऽपत्ये । अभिऽचेरु: । पाकम् । सन्तम् । धीरऽतरा: । अनागसम् ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (याम् याम्) जिस-जिस (कृत्याम्) हिंसा क्रिया को (वा) अथवा (वलगम्) गुप्त कर्म को (ते) तेरे (बर्हिषि) जल में, (श्मशाने) मरघट में [अथवा] (क्षेत्रे) खेत में (धीरतराः) धीरों के दबानेवालों ने (निचख्नुः) दबा दिया है। (वा) अथवा (गार्हपत्ये) गृहपतियों करके संयुक्त (अग्नौ) अग्नि में (पाकम्) परिपक्व स्वभाववाले, (सन्तम्) सन्त [सदाचारी] और (अनागसम्) निर्दोषी (त्वा) तेरे (अभिचेरुः) उन्होंने विरुद्ध आचरण किया है ॥१८॥ [उस] (अनुबुद्धम्) ताक लगाये गये, (उपाहृतम्) प्रयोग किये गये, (निखातम्) दबाये गये [सुरंग, गढ़े आदि में छिपाये गये] (वैरम्) वैररूप (त्सारि) टेढ़े (कर्त्रम्) कटार को (अनु अविदाम्) हमने ढूँढ़ लिया है। (तत्) वह (एतु) चला जावे, (यतः) जहाँ से (आभृतम्) लाया गया है, (तत्र) वहाँ पर (अश्वः इव) घोड़े के समान (वि वर्तताम्) लोट जावे, (कृत्याकृतः) हिंसा करनेवाले की (प्रजाम्) प्रजा [पुत्र, पौत्र, भृत्य आदि] को (हन्तु) मारे ॥१९॥

    भावार्थ

    जो शत्रु लोग जल आदि के उपयोगी स्थान में प्रकट वा गुप्त खाई, सुरंग आदि बनाकर हानिकारक क्रिया करें, चतुर सेनापति उन का खोज लगाकर उनको वैसी ही क्रियाओं से विध्वंस करे ॥१८,१९॥ इन मन्त्रों का मिलान करो-अथर्व० ५।३१।८, ९ ॥

    टिप्पणी

    १८, १९−(याम्) (ते) तव (बर्हिषि) अ० ५।२२।१। जले-निघ० १।१३। (याम्) (श्मशाने) अ० ५।३१।८। शवदाहस्थाने (क्षेत्रे) शस्योत्पत्तिस्थाने (कृत्याम्) हिंसाम् (वलगम्) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।८। निखातवन्तः (अग्नौ) (वा) (त्वा) (गार्हपत्ये) अ० ६।१२०।१। गृहपतिभिः संयुक्ते (अभिचेरुः) अ० ५।३०।२। दुष्कृतवन्तः (पाकम्) अ० ९।९।२२। परिपक्वमनस्कम् (सन्तम्) सदाचारिणम् (धीरतराः) धीर+तॄ प्लवने अभिभवे च-अच्। धीराणां बुद्धिमतामभिभवितारः (अनागसम्) अ० ७।६।३। अनपराधिनम् ॥ (उपाहृतम्) प्रयुक्तम् (अनुबुद्धम्) अनुक्रमेण विचारितम् (निखातम्) खनित्वा स्थापितम् (वैरम्) द्वेषम् (त्सारि) त्सर छद्मगतौ−णिनि। वक्रम् (अनु) अनुसन्धानेन (अविदाम) विद्लृ लाभे−लुङ्। वयं प्राप्तवन्तः (कर्त्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। कृती छेदने−ष्ट्रन्, तलोपः। यद्वा, कृञ् हिंसायाम्−ष्ट्रन्। कर्तनायुधम्। कृपाणम् (तत्) (एतु) (यतः) यस्मात् (आभृतम्) आहृतम् (तत्र) (अश्वः इव) (वि वर्तताम्) विविधं वर्तनं करोतु (हन्तु) (कृत्याकृतः) म० २। हिंसाकारकस्य (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपाम् ॥

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    विषय

    बर्हिषि, श्मशाने, क्षेत्रे

    पदार्थ

    १. (या कृत्याम्) = जिस छेदनक्रिया की साधनभूत वस्तु को, (वा) = अथवा (वल-गम्) = [वल् संवरणे, ग-गम्] छिपे रूप में गति करनेवाली बम्ब आदि वस्तु को (ते बर्हिषि) = तेरी कुशादि घासों में, (याम्) = जिसे (श्मशाने) = समीपस्थ श्मशान में व (क्षेत्रे) = खेत में (निचख्नु:) = गाड़ देते हैं, (वा) = अथवा जो (धीरतरा:) = [तु अभिभवे] धीरों का भी अभिभव करनेवाले-अपने को अधिक बुद्धिमान् माननेवाले लोग (पाकम्) =  पवित्र व (अनागसम्) = निरपराध (सन्तं त्वा) = होते हुए भी तुझे (गार्हपत्ये अनौ) = गार्हपत्य अग्नि में (अभिचेरु:) = अभिचरित करते हैं। अभिचारयज्ञ द्वारा अथवा किसी प्रकार गार्हपत्य अग्नि के प्रयोग द्वारा तुझे नष्ट करने का यत्र करते हैं। २. (उपाहृतम्) = उपहाररूप में दी गई (अनुबुद्धम्) = अनुकूल रूप से जानी गई अथवा (निखातम्) = कहीं क्षेत्र आदि में गाड़ी गई (वैरम्) = [वीरस्य भावः, वि•ई] विशिष्टरूप से कम्पित करनेवाली (त्सारी) = [त्सर छागती] कुटिल गतिवाली-छिपेरूप में गतिवाली [वल-ग] (कर्त्रम्) = [कृत्याम्] घातक वस्तु को (अन्व विदाम) = हमने समझ लिया है, (तत्) = अत: यह (कर्त्रम्) = कृत्या (यतः आभूतम्) = जहाँ से यहाँ पहुँचाई गई है वहीं (एतु) = चली जाए। यह (तत्र) = वहाँ ही-जहाँ से आई है उस आनेवाले स्थान पर (अश्वः इव) = घोड़े की भाँति अथवा व्यापक अग्नि की भाँति (विवर्तताम्) = लौट जाए और (कृत्याकृतः प्रजां हन्तु) = कृत्या करनेवाले की प्रजा को ही नष्ट करे।

    भावार्थ

    घातक प्रयोग की वस्तु घास आदि में छिपाकर रक्खी जा सकती है, समीप के शमशान या खेत में गाड़ी जा सकती है अथवा गार्हपत्य अग्नि में कोई घातक प्रयोग किया जा सकता है। ये भी सम्भव है कि ऐसी कोई घातक वस्तु बड़ी अनुकूल-सी प्रतीत होती हुई उपहार रूप में दी जाए। ये सब उस कृत्या को करनेवालों को ही प्राप्त हों-उन्हीं की प्रजा के विनाश का कारण बनें।

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    भाषार्थ

    (ते) तेरे (बर्हिषि) जलों में (याम्) जिस (कृत्याम्) हिंस्रकर्म को (श्मशाने) तेरी श्मशान भूमि में, तथा (क्षेत्रे) तेरे खेतों में (याम्) जिस हिनकर्म को [शत्रुजनों ने किया है], (वा) अथवा (वलगम्) वलय में गति करने वाले विस्फोटकों को (नि चख्नुः) तेरी भूमि में नीचे गाड़ा है, (या) या (गार्हपत्ये अग्नौ) तेरी गार्हपत्य अग्नि के स्थल में [गाड़ा है], या (धीरतराः) तुझ से अधिक बुद्धिमानों अर्थात् शत्रु के अधिक चालाक जनों ने, (पाकम, अनागसम्) आचार-विचार में पवित्र तथा पापरहित (त्वा) तुझ को (अभि चेरुः) लक्ष्य कर के हिंस्रकर्म किया है, उस सब को [कृर्तॄन बोधय (मन्त्र १७)] इन हिंस्रकर्मों के करने वाले शत्रु अधिकारियों को बोधित करा।

    टिप्पणी

    [बर्हिषि; बर्हिः उदकनाम (निघं० १।१२)। मन्त्र में शन्तिप्रिय राजा या प्रधानमन्त्री के सम्बन्ध में शत्रुप्रयुक्त हिंस्रकर्मों का वर्णन हुआ है]।

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    विषय

    घातक प्रयोगों का दमन।

    भावार्थ

    (यां) जिस (कृत्या) घातक प्रयोग को (ते) तेरे (बर्हिषि) धान्य, पशु या प्रजा में और (यां) जिसको (श्मशाने) मसान में और (क्षेत्रे) खेत में (निचख्नुः) गाड़ देते हैं या जिस (बलगं) किसी गुप्त प्रयोग को प्रजा, मसान या खेत में गाड़ दिया है, गुप्तरूप से स्थापित कर दिया है और या (धीरतराः) अधिक बुद्धिमान् लोग (अनागसम्) निरपराध (पाकम्) पवित्र (त्वा) तुझ (सन्तं) सज्जन को भी (गार्हपत्ये) गार्हपत्य (अग्नौ) अग्नि में (अभिचेरुः) तेरे विरुद्ध अतिचार या घातक प्रयोग करते हैं।

    टिप्पणी

    ‘यां ते चक्रुर्बर्हिषि’ (द्वि०) ‘कृत्यां क्षेत्रे’ (च०) ‘धीरतरा भागसम्’ तमितो नाशयामसि। इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रत्यंगिरसो ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १ महाबृहती, २ विराण्नामगायत्री, ९ पथ्यापंक्तिः, १२ पंक्तिः, १३ उरोबृहती, १५ विराड् जगती, १७ प्रस्तारपंक्तिः, २० विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १६, १८ त्रिष्टुभौ, १९ चतुष्पदा जगती, २२ एकावसाना द्विपदाआर्ची उष्णिक्, २३ त्रिपदा भुरिग् विषमगायत्री, २४ प्रस्तारपंक्तिः, २८ त्रिपदा गायत्री, २९ ज्योतिष्मती जगती, ३२ द्व्यनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती, ३-११, १४, २२, २१, २५-२७, ३०, ३१ अनुष्टुभः। द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil Designs

    Meaning

    Whatever evil, mischief or sabotage the clever people have done or hidden in your waters, cremation ground or fields or in your home stead, in the fire or in the yajnic hall towards you, even though you are pure and sinless, we counter and throw out even if they are stronger some way.

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    Translation

    What harmful design or plotting they have buried under your grass, or in the cremation-ground (smašāne), or in your field, and being more determined, what they have conspired through the householder’s fire (gārhapatye) against you, who are simple (dhiratarah) and faultless (anagasam).

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    Translation

    O man make ineffective the device or hidden design which they have hurled or cast in water, which in field, which in cremation ground and which the cunning fellows have hurled against simple, innocent you in the fire of house-hold.

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    Translation

    O man! the violent deed or secret mischief which they have wrought for thee in cattle, field or cemetery, or evil which men more cunning have designed in household fire against thee, pure, noble, innocent, try to undo their vexatious conduct.

    Footnote

    (18, 19) A wise general should adequately punish the enemies who dig trenches or use other open and secret devices to harm the people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८, १९−(याम्) (ते) तव (बर्हिषि) अ० ५।२२।१। जले-निघ० १।१३। (याम्) (श्मशाने) अ० ५।३१।८। शवदाहस्थाने (क्षेत्रे) शस्योत्पत्तिस्थाने (कृत्याम्) हिंसाम् (वलगम्) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।८। निखातवन्तः (अग्नौ) (वा) (त्वा) (गार्हपत्ये) अ० ६।१२०।१। गृहपतिभिः संयुक्ते (अभिचेरुः) अ० ५।३०।२। दुष्कृतवन्तः (पाकम्) अ० ९।९।२२। परिपक्वमनस्कम् (सन्तम्) सदाचारिणम् (धीरतराः) धीर+तॄ प्लवने अभिभवे च-अच्। धीराणां बुद्धिमतामभिभवितारः (अनागसम्) अ० ७।६।३। अनपराधिनम् ॥ (उपाहृतम्) प्रयुक्तम् (अनुबुद्धम्) अनुक्रमेण विचारितम् (निखातम्) खनित्वा स्थापितम् (वैरम्) द्वेषम् (त्सारि) त्सर छद्मगतौ−णिनि। वक्रम् (अनु) अनुसन्धानेन (अविदाम) विद्लृ लाभे−लुङ्। वयं प्राप्तवन्तः (कर्त्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। कृती छेदने−ष्ट्रन्, तलोपः। यद्वा, कृञ् हिंसायाम्−ष्ट्रन्। कर्तनायुधम्। कृपाणम् (तत्) (एतु) (यतः) यस्मात् (आभृतम्) आहृतम् (तत्र) (अश्वः इव) (वि वर्तताम्) विविधं वर्तनं करोतु (हन्तु) (कृत्याकृतः) म० २। हिंसाकारकस्य (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपाम् ॥

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