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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 19
    ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - चतुष्पदा जगती सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
    88

    उ॒पाहृ॑त॒मनु॑बुद्धं॒ निखा॑तं॒ वैरं॑ त्सा॒र्यन्व॑विदाम॒ कर्त्र॑म्। तदे॑तु॒ यत॒ आभृ॑तं॒ तत्राश्व॑ इव॒ वि व॑र्ततां॒ हन्तु॑ कृत्या॒कृतः॑ प्र॒जाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒ऽआहृ॑तम् । अनु॑ऽबुध्दम् । निऽखा॑तम् । वैर॑म् । त्सा॒रि । अनु॑ । अ॒वि॒दा॒म॒ । कर्त्र॑म् । तत् । ए॒तु॒ । यत॑: । आऽभृ॑तम् । तत्र॑ । अश्व॑:ऽइव । वि । व॒र्त॒ता॒म् । हन्तु॑ । कृ॒त्या॒ऽकृत॑: । प्र॒ऽजाम् ॥१.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपाहृतमनुबुद्धं निखातं वैरं त्सार्यन्वविदाम कर्त्रम्। तदेतु यत आभृतं तत्राश्व इव वि वर्ततां हन्तु कृत्याकृतः प्रजाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उपऽआहृतम् । अनुऽबुध्दम् । निऽखातम् । वैरम् । त्सारि । अनु । अविदाम । कर्त्रम् । तत् । एतु । यत: । आऽभृतम् । तत्र । अश्व:ऽइव । वि । वर्तताम् । हन्तु । कृत्याऽकृत: । प्रऽजाम् ॥१.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 19
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (याम् याम्) जिस-जिस (कृत्याम्) हिंसा क्रिया को (वा) अथवा (वलगम्) गुप्त कर्म को (ते) तेरे (बर्हिषि) जल में, (श्मशाने) मरघट में [अथवा] (क्षेत्रे) खेत में (धीरतराः) धीरों के दबानेवालों ने (निचख्नुः) दबा दिया है। (वा) अथवा (गार्हपत्ये) गृहपतियों करके संयुक्त (अग्नौ) अग्नि में (पाकम्) परिपक्व स्वभाववाले, (सन्तम्) सन्त [सदाचारी] और (अनागसम्) निर्दोषी (त्वा) तेरे (अभिचेरुः) उन्होंने विरुद्ध आचरण किया है ॥१८॥ [उस] (अनुबुद्धम्) ताक लगाये गये, (उपाहृतम्) प्रयोग किये गये, (निखातम्) दबाये गये [सुरंग, गढ़े आदि में छिपाये गये] (वैरम्) वैररूप (त्सारि) टेढ़े (कर्त्रम्) कटार को (अनु अविदाम्) हमने ढूँढ़ लिया है। (तत्) वह (एतु) चला जावे, (यतः) जहाँ से (आभृतम्) लाया गया है, (तत्र) वहाँ पर (अश्वः इव) घोड़े के समान (वि वर्तताम्) लोट जावे, (कृत्याकृतः) हिंसा करनेवाले की (प्रजाम्) प्रजा [पुत्र, पौत्र, भृत्य आदि] को (हन्तु) मारे ॥१९॥

    भावार्थ

    जो शत्रु लोग जल आदि के उपयोगी स्थान में प्रकट वा गुप्त खाई, सुरंग आदि बनाकर हानिकारक क्रिया करें, चतुर सेनापति उन का खोज लगाकर उनको वैसी ही क्रियाओं से विध्वंस करे ॥१८,१९॥ इन मन्त्रों का मिलान करो-अथर्व० ५।३१।८, ९ ॥

    टिप्पणी

    १८, १९−(याम्) (ते) तव (बर्हिषि) अ० ५।२२।१। जले-निघ० १।१३। (याम्) (श्मशाने) अ० ५।३१।८। शवदाहस्थाने (क्षेत्रे) शस्योत्पत्तिस्थाने (कृत्याम्) हिंसाम् (वलगम्) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।८। निखातवन्तः (अग्नौ) (वा) (त्वा) (गार्हपत्ये) अ० ६।१२०।१। गृहपतिभिः संयुक्ते (अभिचेरुः) अ० ५।३०।२। दुष्कृतवन्तः (पाकम्) अ० ९।९।२२। परिपक्वमनस्कम् (सन्तम्) सदाचारिणम् (धीरतराः) धीर+तॄ प्लवने अभिभवे च-अच्। धीराणां बुद्धिमतामभिभवितारः (अनागसम्) अ० ७।६।३। अनपराधिनम् ॥ (उपाहृतम्) प्रयुक्तम् (अनुबुद्धम्) अनुक्रमेण विचारितम् (निखातम्) खनित्वा स्थापितम् (वैरम्) द्वेषम् (त्सारि) त्सर छद्मगतौ−णिनि। वक्रम् (अनु) अनुसन्धानेन (अविदाम) विद्लृ लाभे−लुङ्। वयं प्राप्तवन्तः (कर्त्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। कृती छेदने−ष्ट्रन्, तलोपः। यद्वा, कृञ् हिंसायाम्−ष्ट्रन्। कर्तनायुधम्। कृपाणम् (तत्) (एतु) (यतः) यस्मात् (आभृतम्) आहृतम् (तत्र) (अश्वः इव) (वि वर्तताम्) विविधं वर्तनं करोतु (हन्तु) (कृत्याकृतः) म० २। हिंसाकारकस्य (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपाम् ॥

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    विषय

    बर्हिषि, श्मशाने, क्षेत्रे

    पदार्थ

    १. (या कृत्याम्) = जिस छेदनक्रिया की साधनभूत वस्तु को, (वा) = अथवा (वल-गम्) = [वल् संवरणे, ग-गम्] छिपे रूप में गति करनेवाली बम्ब आदि वस्तु को (ते बर्हिषि) = तेरी कुशादि घासों में, (याम्) = जिसे (श्मशाने) = समीपस्थ श्मशान में व (क्षेत्रे) = खेत में (निचख्नु:) = गाड़ देते हैं, (वा) = अथवा जो (धीरतरा:) = [तु अभिभवे] धीरों का भी अभिभव करनेवाले-अपने को अधिक बुद्धिमान् माननेवाले लोग (पाकम्) =  पवित्र व (अनागसम्) = निरपराध (सन्तं त्वा) = होते हुए भी तुझे (गार्हपत्ये अनौ) = गार्हपत्य अग्नि में (अभिचेरु:) = अभिचरित करते हैं। अभिचारयज्ञ द्वारा अथवा किसी प्रकार गार्हपत्य अग्नि के प्रयोग द्वारा तुझे नष्ट करने का यत्र करते हैं। २. (उपाहृतम्) = उपहाररूप में दी गई (अनुबुद्धम्) = अनुकूल रूप से जानी गई अथवा (निखातम्) = कहीं क्षेत्र आदि में गाड़ी गई (वैरम्) = [वीरस्य भावः, वि•ई] विशिष्टरूप से कम्पित करनेवाली (त्सारी) = [त्सर छागती] कुटिल गतिवाली-छिपेरूप में गतिवाली [वल-ग] (कर्त्रम्) = [कृत्याम्] घातक वस्तु को (अन्व विदाम) = हमने समझ लिया है, (तत्) = अत: यह (कर्त्रम्) = कृत्या (यतः आभूतम्) = जहाँ से यहाँ पहुँचाई गई है वहीं (एतु) = चली जाए। यह (तत्र) = वहाँ ही-जहाँ से आई है उस आनेवाले स्थान पर (अश्वः इव) = घोड़े की भाँति अथवा व्यापक अग्नि की भाँति (विवर्तताम्) = लौट जाए और (कृत्याकृतः प्रजां हन्तु) = कृत्या करनेवाले की प्रजा को ही नष्ट करे।

    भावार्थ

    घातक प्रयोग की वस्तु घास आदि में छिपाकर रक्खी जा सकती है, समीप के शमशान या खेत में गाड़ी जा सकती है अथवा गार्हपत्य अग्नि में कोई घातक प्रयोग किया जा सकता है। ये भी सम्भव है कि ऐसी कोई घातक वस्तु बड़ी अनुकूल-सी प्रतीत होती हुई उपहार रूप में दी जाए। ये सब उस कृत्या को करनेवालों को ही प्राप्त हों-उन्हीं की प्रजा के विनाश का कारण बनें।

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    भाषार्थ

    (उपाहृतम्) उपहार रूप में दिया गया, (अनुबुद्धम्१) तत्पश्चात् जान लिया गया; या (वैरम्) बैर भावना से (त्सारि२) गुप्तरूप में (निखातम्) गाड़ा गया (कर्त्रम्) काट-छांट करने वाला विस्फोटक (अनु अविदाम) जिसे कि हम ने जान-पहचान लिया है (तत्) वह (एतु) चला जाए, अर्थात् भेज दिया जाय (यतः) जहां से (आभृतम् =आहृतम्) लाया गया था, (तत्र) वहां (अश्वः इव) अश्व की तरह वह (निवर्तताम्) करवटें बदले, और (कृत्या कृतः) हिंस्र विस्फोटक के निर्माता की (प्रजाम्) प्रजा का (हन्तु) हनन करे।

    टिप्पणी

    [यह निखात विस्फोटक "वलग" है (मन्त्र १८), जो कि वलय गति में चक्कर काटता हुआ घूमता है, जैसे कि अश्व करवटें बदलता है]।[१. उपहार के, तथा निरवात के, स्वरूपों को हम ने जान लिया है। २. त्सारि= त्स छद्मगतौ (भ्वादिः); प्रछन्नरूप, गुप्तरूप।]

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    विषय

    घातक प्रयोगों का दमन।

    भावार्थ

    (उपाहृतम्) उपहाररूप में दिये गये (अनु-बुद्धं) अनुकूल रूप में जाने गये (निखातम्) गाड़े हुए, पुराने (वैरम्) वैरभाव को (त्सारि) कुटिल और (कर्त्रम्) घातक (अनु अविदाम) पाते हैं। (तत्) वह (यत आ-भृतम्) जहां से उठा हो वहां ही (एतु) चला जाय और (तत्र) वहां (अश्व इव) व्यापक अभि के समान (वर्त्तताम्) रहे और (कृत्या-कृतः) परघातक सेनाओं और प्रयोगों को करने वालों की (प्रजाम्) प्रजा को ही (हन्तु) विनाश करे।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘उपागतम्’ (च०) ‘तन्नाश्वेव’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रत्यंगिरसो ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १ महाबृहती, २ विराण्नामगायत्री, ९ पथ्यापंक्तिः, १२ पंक्तिः, १३ उरोबृहती, १५ विराड् जगती, १७ प्रस्तारपंक्तिः, २० विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १६, १८ त्रिष्टुभौ, १९ चतुष्पदा जगती, २२ एकावसाना द्विपदाआर्ची उष्णिक्, २३ त्रिपदा भुरिग् विषमगायत्री, २४ प्रस्तारपंक्तिः, २८ त्रिपदा गायत्री, २९ ज्योतिष्मती जगती, ३२ द्व्यनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती, ३-११, १४, २२, २१, २५-२७, ३०, ३१ अनुष्टुभः। द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil Designs

    Meaning

    Brought in, presented, confirmed, the deadly enemy, we have come to know as a camouflaged mischief and evil which is destructive. Let it go back from where it was brought, return there fast as a horse and destroy all the creations and products of the evil doers.

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    Translation

    We have found out (the harmful design) that has been brought, that has been buried with hostile intent. We have found out its maker too. May it go back wherefrom it came. Let it rage there like a horse. May it destroy the progeny of the maker of this harmful design.

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    Translation

    I discover as understood the tool cast against, stealthily concealed, burried deep, used with enemity, made in curbing shape and pointed to cut sharp. Let it go there whence it has been brought and work out its power like a horse or fire and slay the children of the maker of the tool.

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    Translation

    We have discovered the destructive, crooked, deep-rooted, well understood, nicely planned hatred. Let that go back to whence it came, turn thither like a horse and kill the children of its perpetrator.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १८, १९−(याम्) (ते) तव (बर्हिषि) अ० ५।२२।१। जले-निघ० १।१३। (याम्) (श्मशाने) अ० ५।३१।८। शवदाहस्थाने (क्षेत्रे) शस्योत्पत्तिस्थाने (कृत्याम्) हिंसाम् (वलगम्) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।४। आच्छादनम्। गुप्तकर्म (वा) (निचख्नुः) अ० ५।३१।८। निखातवन्तः (अग्नौ) (वा) (त्वा) (गार्हपत्ये) अ० ६।१२०।१। गृहपतिभिः संयुक्ते (अभिचेरुः) अ० ५।३०।२। दुष्कृतवन्तः (पाकम्) अ० ९।९।२२। परिपक्वमनस्कम् (सन्तम्) सदाचारिणम् (धीरतराः) धीर+तॄ प्लवने अभिभवे च-अच्। धीराणां बुद्धिमतामभिभवितारः (अनागसम्) अ० ७।६।३। अनपराधिनम् ॥ (उपाहृतम्) प्रयुक्तम् (अनुबुद्धम्) अनुक्रमेण विचारितम् (निखातम्) खनित्वा स्थापितम् (वैरम्) द्वेषम् (त्सारि) त्सर छद्मगतौ−णिनि। वक्रम् (अनु) अनुसन्धानेन (अविदाम) विद्लृ लाभे−लुङ्। वयं प्राप्तवन्तः (कर्त्रम्) सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। कृती छेदने−ष्ट्रन्, तलोपः। यद्वा, कृञ् हिंसायाम्−ष्ट्रन्। कर्तनायुधम्। कृपाणम् (तत्) (एतु) (यतः) यस्मात् (आभृतम्) आहृतम् (तत्र) (अश्वः इव) (वि वर्तताम्) विविधं वर्तनं करोतु (हन्तु) (कृत्याकृतः) म० २। हिंसाकारकस्य (प्रजाम्) पुत्रपौत्रभृत्यादिरूपाम् ॥

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