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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
    124

    परा॑क्ते॒ ज्योति॒रप॑थं ते अ॒र्वाग॒न्यत्रा॒स्मदय॑ना कृणुष्व। परे॑णेहि नव॒तिं ना॒व्या॒ अति॑ दु॒र्गाः स्रो॒त्या मा क्ष॑णिष्ठाः॒ परे॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परा॑क् । ते॒ । ज्योति॑: । अप॑थम् । ते॒ । अ॒र्वाक् । अ॒न्यत्र॑ । अ॒स्मत् । अ॒यना । कृ॒णु॒ष्व॒ । परे॑ण । इ॒हि॒ । न॒व॒तिम् । ना॒व्या᳡: । अति॑ । दु॒:ऽगा: । स्रो॒त्या: । मा । क्ष॒णि॒ष्ठा॒: । परा॑ । इ॒हि॒ ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पराक्ते ज्योतिरपथं ते अर्वागन्यत्रास्मदयना कृणुष्व। परेणेहि नवतिं नाव्या अति दुर्गाः स्रोत्या मा क्षणिष्ठाः परेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पराक् । ते । ज्योति: । अपथम् । ते । अर्वाक् । अन्यत्र । अस्मत् । अयना । कृणुष्व । परेण । इहि । नवतिम् । नाव्या: । अति । दु:ऽगा: । स्रोत्या: । मा । क्षणिष्ठा: । परा । इहि ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।

    पदार्थ

    (पराक्) आगे की ओर (ते) तेरे लिये (ज्योतिः) ज्योति [अग्नि आदि प्रकाश] है, (अर्वाक्) इस ओर (ते) तेरे लिये (अपथम्) मार्ग नहीं है, (अस्मत्) हम से (अन्यत्र) दूसरे स्थान में [अपने] (अयना) मार्गों को (कृणुष्व) कर। (परेण) दूसरे [मार्ग] से (नवतिम्) नब्बे [अर्थात् अनेक] (दुर्गाः) बड़ी कठिन, (नाव्याः) नावों से उतरने योग्य (स्रोत्याः) नदियों को (अति) पार करके (इहि) जा, [हमको] (मा क्षणिष्ठाः) मत घायल कर, (परा इहि) हट जा ॥१६॥

    भावार्थ

    चतुर सेनापति उचित व्यूहरचना से शत्रुसेना को आग्नेय आदि अस्त्र-शस्त्रों द्वारा आगे-पीछे से रोक दे और अपने बचाने के लिये पार्श्व मार्ग से उसे निकल जाने दे ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(पराक्) अभिमुखम् (ते) तुभ्यम् (ज्योतिः) प्रकाशः (अपथम्) पथो विभाषा। पा० ५।४।७२। नञ्+पथिन्-अ प्रत्ययः। अपथं नपुंसकम्। पा० २।४।३०। इति नपुंसकम्। मार्गाभावः। कुमार्गः (ते) तुभ्यम् (अर्वाक्) अवरदेशे (अन्यत्र) (अस्मत्) (अयना) मार्गान् (कृणुष्व) कुरु (परेण) यथा (इहि) गच्छ (नवतिम्) बह्वीः-इत्यर्थः (नाव्याः) अ० ८।५।९। नौभिस्तार्याः (अति) अतीत्य (दुर्गाः) दुर्गमनीयाः (स्रोत्याः) अ० १।३२।३। जलप्रवाहाः (मा क्षणिष्ठाः) क्षणु हिंसायाम्−लुङ्। मा हिंसीः (परा इहि) दूरं गच्छ ॥

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    विषय

    नव्वे नदियों के पार

    पदार्थ

    १. हे कृत्ये! (ते ज्योतिः पराक्) = तेरे लिए परे प्रकाश है। (अर्वाक ते अपथम्) = इधर तेरे लिए मार्ग नहीं है। (अस्मत् अन्यत्र) = हमसे भिन्न अन्य स्थानों में तू अपना (कृणुष्व) = अपना मार्ग बना। २. (परेण इहि) = तू दूर मार्ग से गति कर। (नाव्याः) = नौका से तैरने योग्य-गहरी (नवतिम्) = नब्बे [अधिक] (दुर्गा:) = अलंघ्य -कठिनता से लाँघने योग्य (स्त्रोत्या:) = नदियों को (अति) = लाँधकर (परा इहि) = तू दूर चली जा। (मा क्षणिष्ठा:) = हमें हिंसित करनेवाली मत हो [क्षणु हिंसायाम]।

    भावार्थ

    कृत्या हमारी ओर आनेवाली न हो। हमसे वह दूर ही रहे। नव्वे नदियों के पार रहती हुई वह हमारा हिंसन करनेवाली न हो।

    सूचना

    'नव्वे नदियों पार'-यह सुदूरता के भाव का सूचक वाक्यखण्ड [मुहावरा] है।

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    भाषार्थ

    [हे परकीय सेना !] (पराक्) परे चले जाना (ते) तेरे लिये (ज्योतिः) ज्योति है, जीवन है, (अर्वाक) इधर अर्थात् हमारी ओर आना (ते) तेरे लिये (अपथम्) कोई मार्ग नहीं, (अस्मद्) हमसे (अन्यत्र) अन्य स्थान में (अयना) निज आना-जाना (कृणुष्व) कर। (नाव्याः) नौकाओं द्वारा पार करने योग्य, (दुर्गाः) दुर्गम अर्थात् दुःस्तर, (नवतिम्) ९० (स्रोत्याः) प्रवहणशील नदियों को (अति) अतिक्रान्त करके (परेण इहि) परे चली जा, (मा क्षणिष्ठाः) ताकि तू हिंसित न हो, (परेहि) परे चली जा।

    टिप्पणी

    [अयाना = अयनानि, अय गतौ। क्षणिष्ठाः= अक्षणिष्ठाः, क्षणु हिंसायाम् (तनादिः)। अथवा "मा क्षणिष्ठाः" क्षण भर भी यहां न ठहर। नवतिम् = अथवा “स्तुत्याः" अर्थात् बड़ी; नु (णु स्तुतौ)]।

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    विषय

    घातक प्रयोगों का दमन।

    भावार्थ

    हे कृत्ये ! (ते ज्योतिः पराक्) तेरे लिये परे प्रकाश है। (अर्वाक्) और इधर (ते) तेरे लिये (अपथम्) कोई मार्ग नहीं है। (अस्मत् अन्यत्र) हमसे अतिरिक्त (अयना) अपने जाने के मार्ग (कृणुष्व) कर। (नाव्याः) नाव से पार करने योग्य (दुर्गाः) दुर्गम (नवतिं) नब्बे (स्रोत्याः) नदियों को (अति) पार करके (परेण इहि) दूर चली जा। (मा क्षणिष्ठाः) तू मत मार या (मा क्षणिष्ठाः) देर मत कर (परा-इहि) दूर भाग जा।

    टिप्पणी

    ‘मा क्षमिष्ठाः’ इति ह्विटनिकामितः पाठः। ‘घनिष्ठाः’, ‘नाव्याति’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रत्यंगिरसो ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १ महाबृहती, २ विराण्नामगायत्री, ९ पथ्यापंक्तिः, १२ पंक्तिः, १३ उरोबृहती, १५ विराड् जगती, १७ प्रस्तारपंक्तिः, २० विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १६, १८ त्रिष्टुभौ, १९ चतुष्पदा जगती, २२ एकावसाना द्विपदाआर्ची उष्णिक्, २३ त्रिपदा भुरिग् विषमगायत्री, २४ प्रस्तारपंक्तिः, २८ त्रिपदा गायत्री, २९ ज्योतिष्मती जगती, ३२ द्व्यनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती, ३-११, १४, २२, २१, २५-२७, ३०, ३१ अनुष्टुभः। द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil Designs

    Meaning

    O force of sin and violence, the light for you is on the way back, no way forward, not hitherward. Make way for yourself elsewhere other than us. Go back, go back another way, cross ninety difficult navigable streams, waste not yourself away. Go back. Stay not a moment. Do not destroy anything good and positive.

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    Translation

    May there be light for you to go younder. There is no way for you to come hither. Make your going elsewhere other than to us. Go across the ninety (navāti) navigable streams, difficult to cross.

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    Translation

    The light for the device is thitherward, there is no path for it hitherward, let this make its home elsewhere, let it cross ninety rivers or streams which are difficult to be crossed by boats, let it be far away and do not inflict any harm.

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    Translation

    O violent army, no path leads hitherward for thee to travel. Turn thee from us: far off, thy light is yonder. Fly hence across the ninety floods, the rivers most hard to pass through boats. Begone, wound us not.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(पराक्) अभिमुखम् (ते) तुभ्यम् (ज्योतिः) प्रकाशः (अपथम्) पथो विभाषा। पा० ५।४।७२। नञ्+पथिन्-अ प्रत्ययः। अपथं नपुंसकम्। पा० २।४।३०। इति नपुंसकम्। मार्गाभावः। कुमार्गः (ते) तुभ्यम् (अर्वाक्) अवरदेशे (अन्यत्र) (अस्मत्) (अयना) मार्गान् (कृणुष्व) कुरु (परेण) यथा (इहि) गच्छ (नवतिम्) बह्वीः-इत्यर्थः (नाव्याः) अ० ८।५।९। नौभिस्तार्याः (अति) अतीत्य (दुर्गाः) दुर्गमनीयाः (स्रोत्याः) अ० १।३२।३। जलप्रवाहाः (मा क्षणिष्ठाः) क्षणु हिंसायाम्−लुङ्। मा हिंसीः (परा इहि) दूरं गच्छ ॥

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