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अथर्ववेद के काण्ड - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रत्यङ्गिरसः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
    101

    यत्ते॑ पि॒तृभ्यो॒ दद॑तो य॒ज्ञे वा॒ नाम॑ जगृ॒हुः। सं॑दे॒श्या॒त्सर्व॑स्मात्पा॒पादि॒मा मु॑ञ्चन्तु॒ त्वौष॑धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । ते॒ । पि॒तृऽभ्य॑: ।दद॑त: । य॒ज्ञे । वा॒ । नाम॑ । ज॒गृ॒हु: । स॒म्ऽदे॒श्या᳡त् । सर्व॑स्मात् । पा॒पात् । इ॒मा: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । त्वा॒ । ओष॑धी: ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते पितृभ्यो ददतो यज्ञे वा नाम जगृहुः। संदेश्यात्सर्वस्मात्पापादिमा मुञ्चन्तु त्वौषधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । ते । पितृऽभ्य: ।ददत: । यज्ञे । वा । नाम । जगृहु: । सम्ऽदेश्यात् । सर्वस्मात् । पापात् । इमा: । मुञ्चन्तु । त्वा । ओषधी: ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के कर्तव्य दण्ड का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) यदि (यज्ञे) यज्ञ [श्रेष्ठ कर्म करने] में (पितृभ्यः) पितरों [माता पिता आचार्य आदि] को (ददतः) दान करते हुए (ते) तेरा (नाम वा) नाम (जगृहुः) उन्होंने लिया है, (सर्वस्मात्) [उनके] प्रत्येक (संदेश्यात्) अभीष्ट (पापात्) पाप से (इमाः) यह (औषधीः) ओषधियाँ [ओषधिरूप दुःखनाशक विद्वान् पुरुष] (त्वा) तुझको (मुञ्चन्तु) मुक्त करें ॥११॥

    भावार्थ

    यदि कोई पुरुष किसी सत्पुरुष को दान आदि शुभकर्म में मिथ्या दोष लगावें, विद्वान् लोग यथायोग्य अनुसन्धान करके उस दोष से उसे मुक्त करें ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(यत्) यदि (ते) तव (पितृभ्यः) मातापितृगुर्वादिभ्यः (ददतः) दानशीलस्य (यज्ञे) धर्मकर्मणि (वा) पादपूरणे (नाम) मिथ्यापवादम् (जगृहुः) गृहीतवन्तः। आरोपितवन्तः (सन्देश्यात्) दिश दाने-ण्यत्। अभिलषितात्। अभीष्टात् (सर्वस्मात्) (पापात्) (इमाः) (मुञ्चन्तु) वियोजयन्तु (त्वा) (ओषधीः) ओषधयः। ओषधिवत् तापनाशका विद्वांसः ॥

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    विषय

    'सन्देश्य-पाप' निवृत्ति

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब (पितृभ्यः ददत:) = पितरों के लिए देते हुए, अर्थात् पितृयज्ञ को सम्यक् सम्पन्न करते हुए (वा) = अथवा (यज्ञे) = [ददतः] अग्निहोत्र आदि यज्ञों में आहुतियाँ देते हुए (ते) = वे उत्तम आचरण करनेवाले लोग नाम (जगृहु:) = प्रभु-नाम का ग्रहण करते हैं, अर्थात् प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु-स्मरण के कारण ही उन यज्ञों का अहंकार नहीं करते तब (इमाः ओषधी:) = ये दोर्षों का दहन करनेवाले आचार्य विद्वान् लोग (त्वा) = तुझे (सर्वस्मात्) = सब (सन्देश्यात्) = [सन्दिश to give, grant] दान-सम्बन्धी (पापात्) = पाप से (मञ्चन्तु) = मुक्त करें, अर्थात् वे ठीक से प्रेरणा देते हुए यज्ञों में अज्ञानवश हो जानेवाले अपराधों से हमें बचाएँ।

    भावार्थ

    ज्ञानी लोग पितृयज्ञ व देवयज्ञादि उत्तम कर्मों को करते हुए प्रभुनाम-स्मरण से अहंकारवाले नहीं होते। वे दोषों को दग्ध करनेवाले ज्ञानी पुरुष हमें भी इन दानों में हो जानेवाले अपराधों से बचाएँ।

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    भाषार्थ

    (पितृभ्यः) पितरों के प्रति (यद्) जो (ददतः) दान देते हुए, (वा) या (यज्ञे) राष्ट्ररक्षायज्ञ में दान देते हुए, पितरों ने (ते) तेरा (नाम जगृहुः) नाम ग्रहण किया है, (सर्वस्मात्) सब प्रकार के (संदेश्यात्) सामूहिक-देशरहित से हुए (पापात्) दुःखमय या शोकमय पाप से (इमाः ओषधीः) ये ओषधियां (त्वा) तुझे (मुञ्चन्तु) मुक्त कर दें, छुड़ा दें।

    टिप्पणी

    [प्रकरण युद्ध का है। पितर हैं रक्षा करने वाले राज्याधिकारी। इन अधिकारियों को युद्ध निमित्त दान देना, या निज पुत्र देना, अथवा युद्ध को "राष्ट्ररक्षायज्ञ" समझ कर आहुतिरूप में धन और सन्तान अर्पित करना "पापकर्म" है। क्योंकि जीवन मिला है कर्मफल भोग कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये, न कि युद्ध में जीवन की बलि प्रदान करने के लिये। इस प्रदान में अधिकारी पितृवर्ग तेरे नाम को तो उद्घोषित करेंगे ही, ताकि तू यशस्वी हो सके। धनक्षय तथा पुत्रक्षय से तुझे शोक और सन्ताप तो होगा, परन्तु राज्याधिकारी नानाविध ओषधियों द्वारा तेरे शोकसन्ताप को कम करने में यत्नवान् भी होंगे। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि देवता के निमित्त पशु को मार कर तन्निमित्त यज्ञ में मांसाहूति देना भी पापकर्म है। इस के लिये भी प्रायश्चित्त का विधान होता है, चाहे दैवत-कृपा से पशुयज्ञ करने वाले को फल मिल भी जाय। इसलिये राष्ट्रनिमित्त किये गए युद्ध में हिंसा भी पापकर्म ही है]।

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    विषय

    घातक प्रयोगों का दमन।

    भावार्थ

    हे पुरुष (यत्) यदि (पितृभ्यः) अपने पूज्य आचार्य, गुरुओं के प्रति (ददतः) दान करते हुए या (यज्ञे वा) यज्ञ देवयज्ञ के अवसर में जो (ते नाम) तेरा नाम बुरे भाव से (जगृहुः) लें तो (इमा) ये (ओषधीः) ओषधियां या तापकारी प्रायश्चित्त क्रिया (संदेशयात्) संदेश या बुरे तानों से प्राप्त (सर्वस्मात् पापात्) सब प्रकार के पापजनक प्रभाव से (त्वा) तुझको (मुञ्चन्तु) मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रत्यंगिरसो ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १ महाबृहती, २ विराण्नामगायत्री, ९ पथ्यापंक्तिः, १२ पंक्तिः, १३ उरोबृहती, १५ विराड् जगती, १७ प्रस्तारपंक्तिः, २० विराट् प्रस्तारपंक्तिः, १६, १८ त्रिष्टुभौ, १९ चतुष्पदा जगती, २२ एकावसाना द्विपदाआर्ची उष्णिक्, २३ त्रिपदा भुरिग् विषमगायत्री, २४ प्रस्तारपंक्तिः, २८ त्रिपदा गायत्री, २९ ज्योतिष्मती जगती, ३२ द्व्यनुष्टुब्गर्भा पञ्चपदा जगती, ३-११, १४, २२, २१, २५-२७, ३०, ३१ अनुष्टुभः। द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Countering Evil Designs

    Meaning

    If in matters of giving for the service of parents, seniors and ancestors, or in matters of yajnic programmes of creativity, people mention your name with exception and reservation, then may these Oshadhis, men of love and light, absolve you of all that alleged want and sin.

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    Translation

    If they have mentioned your name while making offerings to the elders or at the sacrifice, from all that evil thus proposed let these medicinal plants relieve you.

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    Translation

    If they (the men of evil designs) call you name, i.e. reproach you at the time when you perform yajna and when you offer food and drink to learned old men let these prophylactic-like measures deliver you from all these reproachable evils, O man!

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    Translation

    If in the performance of a noble deed, or in giving financial aid to your parents or teacher, they have falsely accused or slandered thee, let learned persons after investigation release thee from all false accusation levelled against thee.

    Footnote

    They: Evil minded persons. Just as herbs free a man from a disease, so do learned persons deliver a man from false accusation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(यत्) यदि (ते) तव (पितृभ्यः) मातापितृगुर्वादिभ्यः (ददतः) दानशीलस्य (यज्ञे) धर्मकर्मणि (वा) पादपूरणे (नाम) मिथ्यापवादम् (जगृहुः) गृहीतवन्तः। आरोपितवन्तः (सन्देश्यात्) दिश दाने-ण्यत्। अभिलषितात्। अभीष्टात् (सर्वस्मात्) (पापात्) (इमाः) (मुञ्चन्तु) वियोजयन्तु (त्वा) (ओषधीः) ओषधयः। ओषधिवत् तापनाशका विद्वांसः ॥

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