अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 27
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
उ॒त ह॑न्ति पूर्वा॒सिनं॑ प्रत्या॒दायाप॑र॒ इष्वा॑। उ॒त पूर्व॑स्य निघ्न॒तो नि ह॒न्त्यप॑रः॒ प्रति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । ह॒न्ति॒ । पू॒र्व॒ऽआ॒सिन॑म् । प्र॒ति॒ऽआ॒दाय॑ । अप॑र: । इष्वा॑ । उ॒त । पूर्व॑स्य । नि॒ऽघ्न॒त: । नि । ह॒न्ति॒ । अप॑र: । प्रति॑ ॥१.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
उत हन्ति पूर्वासिनं प्रत्यादायापर इष्वा। उत पूर्वस्य निघ्नतो नि हन्त्यपरः प्रति ॥
स्वर रहित पद पाठउत । हन्ति । पूर्वऽआसिनम् । प्रतिऽआदाय । अपर: । इष्वा । उत । पूर्वस्य । निऽघ्नत: । नि । हन्ति । अपर: । प्रति ॥१.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(उत) तथा (पूर्वासिनम्) प्रथम-प्रहार करने वाले को (प्रति आदाय) प्रतीकाररूप में पकड़ कर (अपरः) दूसरा [स्वराष्ट्र रक्षक सेनापति] (इष्वा) इषु द्वारा (हन्ति) मार डालता है। (उत) तथा (पूर्वस्य निघ्नतः) अर्थात् पहिले हत्या करने वाले को, (प्रति) प्रतीकार रूप में, (अपरः) स्वराष्ट्र रक्षक सेनापति (नि हन्ति) नितरां मार डालता हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र में शत्रु के हनन में दो स्थितियों का वर्णन किया है। (१) यदि वह पूर्व प्रहार करे; (२) तथा यदि वह पूर्व हनन करे। प्रथम स्थिति में शत्रु द्वारा प्रथम प्रहार करना ही उस का अपराध है, दूसरी स्थिति में उस द्वारा किया जाने वाला वास्तविक हनन, महा-अपराध है। दोनों स्थितियों में वह मृत्यु-दण्ड के योग्य है। पूर्व प्रहार में यद्यपि कोई व्यक्ति मारा नहीं गया, तो भी प्रहारकर्ता की भावना में तो किये जाने वाला प्रहार, मारने के लिये ही तो है। पूर्वासिनम् = पूर्व + असु (प्रक्षेपे), प्रथम अस्त्र फेंकने वाले को]।