अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
यत्ते॑ पि॒तृभ्यो॒ दद॑तो य॒ज्ञे वा॒ नाम॑ जगृ॒हुः। सं॑दे॒श्या॒त्सर्व॑स्मात्पा॒पादि॒मा मु॑ञ्चन्तु॒ त्वौष॑धीः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । पि॒तृऽभ्य॑: ।दद॑त: । य॒ज्ञे । वा॒ । नाम॑ । ज॒गृ॒हु: । स॒म्ऽदे॒श्या᳡त् । सर्व॑स्मात् । पा॒पात् । इ॒मा: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । त्वा॒ । ओष॑धी: ॥१.११॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते पितृभ्यो ददतो यज्ञे वा नाम जगृहुः। संदेश्यात्सर्वस्मात्पापादिमा मुञ्चन्तु त्वौषधीः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । पितृऽभ्य: ।ददत: । यज्ञे । वा । नाम । जगृहु: । सम्ऽदेश्यात् । सर्वस्मात् । पापात् । इमा: । मुञ्चन्तु । त्वा । ओषधी: ॥१.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 11
भाषार्थ -
(पितृभ्यः) पितरों के प्रति (यद्) जो (ददतः) दान देते हुए, (वा) या (यज्ञे) राष्ट्ररक्षायज्ञ में दान देते हुए, पितरों ने (ते) तेरा (नाम जगृहुः) नाम ग्रहण किया है, (सर्वस्मात्) सब प्रकार के (संदेश्यात्) सामूहिक-देशरहित से हुए (पापात्) दुःखमय या शोकमय पाप से (इमाः ओषधीः) ये ओषधियां (त्वा) तुझे (मुञ्चन्तु) मुक्त कर दें, छुड़ा दें।
टिप्पणी -
[प्रकरण युद्ध का है। पितर हैं रक्षा करने वाले राज्याधिकारी। इन अधिकारियों को युद्ध निमित्त दान देना, या निज पुत्र देना, अथवा युद्ध को "राष्ट्ररक्षायज्ञ" समझ कर आहुतिरूप में धन और सन्तान अर्पित करना "पापकर्म" है। क्योंकि जीवन मिला है कर्मफल भोग कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये, न कि युद्ध में जीवन की बलि प्रदान करने के लिये। इस प्रदान में अधिकारी पितृवर्ग तेरे नाम को तो उद्घोषित करेंगे ही, ताकि तू यशस्वी हो सके। धनक्षय तथा पुत्रक्षय से तुझे शोक और सन्ताप तो होगा, परन्तु राज्याधिकारी नानाविध ओषधियों द्वारा तेरे शोकसन्ताप को कम करने में यत्नवान् भी होंगे। भारतीय तत्त्ववेत्ताओं का कथन है कि देवता के निमित्त पशु को मार कर तन्निमित्त यज्ञ में मांसाहूति देना भी पापकर्म है। इस के लिये भी प्रायश्चित्त का विधान होता है, चाहे दैवत-कृपा से पशुयज्ञ करने वाले को फल मिल भी जाय। इसलिये राष्ट्रनिमित्त किये गए युद्ध में हिंसा भी पापकर्म ही है]।