अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
यस्ते॒ परूं॑षि संद॒धौ रथ॑स्येव॒र्भुर्धि॒या। तं ग॑च्छ॒ तत्र॒ तेऽय॑न॒मज्ञा॑तस्ते॒ऽयं जनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । ते॒ । परूं॑षि । स॒म्ऽद॒धौ । रथ॑स्यऽइव । ऋ॒भु: । धि॒या । तम् । ग॒च्छ॒ । तत्र॑ । ते॒ । अय॑नम् । अज्ञा॑त: । ते॒ । अ॒यम् । जन॑: ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्ते परूंषि संदधौ रथस्येवर्भुर्धिया। तं गच्छ तत्र तेऽयनमज्ञातस्तेऽयं जनः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । ते । परूंषि । सम्ऽदधौ । रथस्यऽइव । ऋभु: । धिया । तम् । गच्छ । तत्र । ते । अयनम् । अज्ञात: । ते । अयम् । जन: ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
भाषार्थ -
(यः) जिस ने [हे परकीय सेना] (ते) तेरे (परुंषि) जोड़ों को (संदधौ) जोड़ा है, (इव) जैसे कि (ऋभुः) तरवीन (धिया) बुद्धिपूर्वक (रथस्य) रथ के जोड़ों को जोड़ता है, (तम्) उस के प्रति (गच्छ) तू चली जा, (तत्र) वहां (ते) तेरा (अयनम्) आश्रय है, घर है, (अयम्) यह (जनः) जनसमुदाय अर्थात् जनपद (ते) तेरे लिये (अज्ञातः) अज्ञात सा हो जाय।
टिप्पणी -
[सेना की कई टुकड़ियां होती हैं, उन को इकट्ठा कर के सेना तय्यार होती है; तथा सेना चतुरंगिणी होती है। प्रत्येक अङ्ग, सेना का एक जोड़ है। इन्हें परस्पर संग्रह कर के मुख्य सेना बनती है। सर्वोपरि सेनापति निज बुद्धनुसार इन्हें परस्पर जोड़ता है]।