अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 29
सूक्त - प्रत्यङ्गिरसः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - मध्ये ज्योतिष्मती जगती
सूक्तम् - कृत्यादूषण सूक्त
अ॑नागोह॒त्या वै भी॒मा कृ॑त्ये॒ मा नो॒ गामश्वं॒ पुरु॑षं वधीः। यत्र॑य॒त्रासि॒ निहि॑ता॒ तत॒स्त्वोत्था॑पयामसि प॒र्णाल्लघी॑यसी भव ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ना॒ग॒:ऽह॒त्या । वै । भी॒मा । कृ॒त्ये॒ । मा । न॒: । गाम् । अश्व॑म् । पुरु॑षम् । व॒धी॒: । यत्र॑ऽयत्र । असि॑ । निऽहि॑ता । तत॑: । त्वा॒ । उत् । स्था॒प॒या॒म॒सि॒ । प॒र्णात् । लघी॑यसी । भ॒व॒ ॥१.२९॥
स्वर रहित मन्त्र
अनागोहत्या वै भीमा कृत्ये मा नो गामश्वं पुरुषं वधीः। यत्रयत्रासि निहिता ततस्त्वोत्थापयामसि पर्णाल्लघीयसी भव ॥
स्वर रहित पद पाठअनाग:ऽहत्या । वै । भीमा । कृत्ये । मा । न: । गाम् । अश्वम् । पुरुषम् । वधी: । यत्रऽयत्र । असि । निऽहिता । तत: । त्वा । उत् । स्थापयामसि । पर्णात् । लघीयसी । भव ॥१.२९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 29
भाषार्थ -
(अनागोहत्या) निरपराधों की हत्या (वै) निश्चय से (भीमा) भयप्रय है, (कृत्ये) हे हिंस्र सेना! (नः) हमारी (गाम्, अश्वम्, पुरुषम्) गौओं, अश्वों और पुरुषों का (वधीः मा) वध न कर। (यत्र यत्र) हमारे राष्ट्र में जहां-जहां (निहिता असि) तू स्थित है (ततः) वहां-वहाँ से (त्वा) तुझे (उत्त्थापयामसि) हम उठा देते हैं, (पर्णात्) पत्ते से भी (लघीयसी) लघु (भव) तू हो जा।
टिप्पणी -
[अनागोहत्या = अन् (नञ् नुट्) + आगः (अपराध, पाप, इत्या)। अभिप्राय यह कि हम ने, हे परकीय सेना ! तेरे राष्ट्र के प्रति कोई अपराध नहीं किया, तो भी तू निरपराधियों की हिंसा के लिये हमारे राष्ट्र में आ बैठी है, तू यहां से उठ जा, नहीं तो हम बल प्रयोग द्वारा यहां से तुझे उठा देंगे। हमारी शक्ति के मुकाबले में तू पत्ते से भी हल्की है, तुच्छ है। इस लिये तू शनैः शनैः वापिस होती जा और तेरी छावनियां हमारे राष्ट्र में हल्की होती जाय। “पर्णाल्लघीयसी भव" का अभिप्राय "न त्वाऽहं तृणं मन्ये" की उक्ति के सदृश भी है]।