अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 32
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तस्मा॒द्वै वि॒द्वान्पुरु॑षमि॒दं ब्रह्मेति॑ मन्यते। सर्वा॒ ह्यस्मिन्दे॒वता॒ गावो॑ गो॒ष्ठ इ॒वास॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठतस्मा॑त् । वै । वि॒द्वान् । पुरु॑षम् । इ॒दम् । ब्रह्म॑ । इति॑ । म॒न्य॒ते॒ । सर्वा॑: । हि । अ॒स्मि॒न् । दे॒वता॑: । गाव॑: । गो॒स्थेऽइ॑व । आस॑ते ॥१०.३२॥
स्वर रहित मन्त्र
तस्माद्वै विद्वान्पुरुषमिदं ब्रह्मेति मन्यते। सर्वा ह्यस्मिन्देवता गावो गोष्ठ इवासते ॥
स्वर रहित पद पाठतस्मात् । वै । विद्वान् । पुरुषम् । इदम् । ब्रह्म । इति । मन्यते । सर्वा: । हि । अस्मिन् । देवता: । गाव: । गोस्थेऽइव । आसते ॥१०.३२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 32
भाषार्थ -
(तस्मात्) इस लिये (वै) निश्चय से (विद्वान्) ज्ञानी व्यक्ति, (पुरुषम्) पुरुष को, (मन्यते) मानता है कि (इदं ब्रह्म) यह ब्रह्म है। (हि) क्योंकि (अस्मिन्) इस पुरुष-शरीर में (सर्वाः देवताः) सब देवता (आसते) निवास करते हैं, (इव) जैसे कि (गावः) गौएं (गोष्ठे) गो शाला में।
टिप्पणी -
[इदं ब्रह्म = पुरुष को "इदं ब्रह्म" कहना, नवीन वेदान्तियों के "अहं बह्म" के अर्थों में नहीं। क्योंकि इस में युक्ति दी है कि पुरुष शरीर में व्यष्टिरूप में सब देवताओं का निवास है (मन्त्र ३०) जैसे कि ब्रह्म में सब देवताओं का निवास है, इस सादृश्य से विद्वान् गौणरूप में पुरुष को ब्रह्म मानता है, नकि वस्तुतः। न केवल अन्य देवताओं का ही अपितु स्वयं ब्रह्म का भी इसमें निवास है। (मन्त्र ३०) इसलिये गौणविधि से पुरुष को ब्रह्म कहा जाता है। अद्वैतवादी मुख्यरूप में अपने को "अहं ब्रह्म" कहते हैं]।