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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 30
    सूक्त - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    या आपो॒ याश्च॑ दे॒वता॒ या वि॒राड्ब्रह्म॑णा स॒ह। शरी॑रं॒ ब्रह्म॒ प्रावि॑श॒च्छरी॒रेऽधि॑ प्र॒जाप॑तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या: । आप॑: । या: । च॒ । दे॒वता॑: । या । वि॒ऽराट् । ब्रह्म॑णा । स॒ह । शरी॑रम् । ब्रह्म॑ । प्र । अ॒वि॒श॒त् । शरी॑रे । अधि॑ । प्र॒जाऽप॑ति: ॥१०.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या आपो याश्च देवता या विराड्ब्रह्मणा सह। शरीरं ब्रह्म प्राविशच्छरीरेऽधि प्रजापतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या: । आप: । या: । च । देवता: । या । विऽराट् । ब्रह्मणा । सह । शरीरम् । ब्रह्म । प्र । अविशत् । शरीरे । अधि । प्रजाऽपति: ॥१०.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 30

    भाषार्थ -
    (यः) जो (आपः) जल [मन्त्र २८ तथा २९] (याः च) और जो (देवताः) देवता [पूर्वमन्त्रों में कथित], (ब्रह्मणा सह या विराट्) ब्रह्म के साथ रहने वाली ब्रह्म की सहयोगिनी जो विराट् अर्थात् संसार के विविध रूपों में दीप्यमान प्रकृति है [जिसे कि मन्त्र १ में जाया कहा है] वह, (ब्रह्म) तथा ब्रह्म (शरीरम् प्राविशत्) शरीर में प्रविष्ट हुआ, (शरीरे अधि) और शरीर में अधिष्ठाता (प्रजापतिः) उत्पन्न सन्तानों का उत्पादक तथा पालक जीवात्मा हुआ।

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