अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अजा॑ता आसन्नृ॒तवोऽथो॑ धा॒ता बृह॒स्पतिः॑। इ॑न्द्रा॒ग्नी अ॒श्विना॒ तर्हि॒ कं ते ज्ये॒ष्ठमुपा॑सत ॥
स्वर सहित पद पाठअजा॑ता: । आ॒स॒न् । ऋ॒तव॑: । अथो॒ इति॑ । धा॒ता । बृह॒स्पति॑: । इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑ । अ॒श्विना॑ । तर्हि॑ । कम् । ते । ज्ये॒ष्ठम् । उप॑ । आ॒स॒त॒ ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
अजाता आसन्नृतवोऽथो धाता बृहस्पतिः। इन्द्राग्नी अश्विना तर्हि कं ते ज्येष्ठमुपासत ॥
स्वर रहित पद पाठअजाता: । आसन् । ऋतव: । अथो इति । धाता । बृहस्पति: । इन्द्राग्नी इति । अश्विना । तर्हि । कम् । ते । ज्येष्ठम् । उप । आसत ॥१०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
जब (ऋतवः) ऋतुएं, (अथो) तथा (धाता, बृहस्पतिः, इन्द्रानी, अश्विना) धारण पोषण करनेवाला मेघ, वायु, विद्युत्-और-अग्नि, सूर्य-चान्द (अजाताः आसन्) प्रादुर्भूत नहीं हुए ये, (तर्हि) उस समय (ते) वे (कम्) किस (ज्येष्ठम्) बड़ी शक्ति की (उपासत) उपासना करते थे। [उत्पत्ति के लिये प्रतीक्षा करते थे]।
टिप्पणी -
[निरुक्त में धाता और बृहस्पति को मध्यमस्थानी देवता कहा है, और यथाक्रम इन का सम्बन्ध अन्न की उत्पत्ति तथा प्रजापालन के साथ वर्णित किया है। धाता (धाञ् धारणपोषणयोः) अर्थात् मेघ। बृहस्पतिः= बृहतः स्थावरजङ्गमात्मकस्य प्राणिजातस्य पतिः रक्षकः पालकः = वायु१। इन्द्र और अग्नि यथाक्रम विद्युत-और-उस की चमक, या विद्युत और उस के प्रपात द्वारा वृक्षों में लगी अग्नि। अश्विना= द्यावापृथिव्यौ, सूर्याचन्द्रमसौ, अहोरात्रे। ऋतवः= प्रसिद्ध ६ ऋतुएं। उपासत= वेद सत्कार्यवाद का समर्थक हैं (अथर्व० १७।१।१९)। वैदिक दृष्टि में वस्तु का प्रादुर्भाव अर्थात् अपने कारण में सूक्ष्मरूप में स्थित का प्रकाशमात्र होता है, कोई नई उत्पत्ति नहीं होती। इस लिये अपने-अपने कारणों में स्थित और अनभिव्यक्त ऋतु आदि के सम्बन्ध में उपासना का वर्णन हुआ है। ऋतु आदि जड़ हैं, परन्तु कविता में इन्हें चेतनरूप देकर धन की उपासना क्रिया का वर्णन हुआ है। सारांश यह है कि अपनी-अपनी अभिव्यक्ति के लिये किसी शक्ति की प्रतीक्षा में ये थे। अजाताः= अ + जनीप्रादुर्भावे + क्त]। [१. वायु प्राणधार है। बिना वायु के जीवन कतिपय क्षणों में समाप्त हो जाता है, अतः वायु महापालक है, बृहस्पति है।]