अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 7
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
येत आसी॒द्भूमिः॒ पूर्वा॒ याम॑द्धा॒तय॒ इद्वि॒दुः। यो वै तां॑ वि॒द्यान्ना॒मथा॒ स म॑न्येत पुराण॒वित् ॥
स्वर सहित पद पाठया । इत॒: । आसी॑त् । भूमि॑: । पूर्वा॑ । याम् । अ॒ध्दा॒तय॑: । इत् । वि॒दु: । य: । वै । ताम् । वि॒द्यात् । ना॒मऽथा॑ । स: । म॒न्ये॒त॒ । पु॒रा॒ण॒ऽवित् ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
येत आसीद्भूमिः पूर्वा यामद्धातय इद्विदुः। यो वै तां विद्यान्नामथा स मन्येत पुराणवित् ॥
स्वर रहित पद पाठया । इत: । आसीत् । भूमि: । पूर्वा । याम् । अध्दातय: । इत् । विदु: । य: । वै । ताम् । विद्यात् । नामऽथा । स: । मन्येत । पुराणऽवित् ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 7
भाषार्थ -
(या भूमिः) जो भूमि (इतः) इस प्रत्यक्ष दृष्ट भूमि से (पूर्वा) पूर्वावस्था की (आसीत्) थी, (याम्) जिसे कि (अद्धातयः) सत्यान्वेषी या सत्यज्ञानी (इत्) ही (विदुः) जानते है। (यः) जो (वै) निश्चय से अर्थात् यथार्थरूप में (ताम्) उस पूर्वावस्था की भूमि को (नामथा) नाम प्रकार से (विद्यात्) जाने (सः) वह अपने को (पुराणवित्) पुरातत्त्ववित् या प्रकृतितत्त्ववित् (मन्येत) माने या जाने।
टिप्पणी -
[भूमिः= जिस में कि प्राणी आदि पैदा होते हैं "भवन्ति पदार्था अस्यामिति" (उणा० ४।४६, महर्षि दयानन्द)। भूमि की पूर्वावस्था उत्पादिकावस्था में न थी, वह अपने कारणों में केवल प्रथितावस्था में थी, अतः उस का नाम उस अवस्था में "पृथिवी" था, भूमि नहीं। अद्धातयः, अद्धा सत्यनाम (निघं० ३।७) + अत (गमने) गतेस्त्रयोऽर्थाः ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च। अतः अद्धातयः में "अत्" का अर्थ है ज्ञान। भूमि की पूर्वावस्था में उस का नाम था "पृथिवी"। इसी नाम से प्रत्यक्ष में फैली अर्थात् प्रथित हुई, भूमि को पृथिवी भी कहते हैं१।] [१. अभिप्राय यह कि भूमि की वर्तमानावस्था में इस पर प्राणिजात तथा वृक्ष-वनस्पतियां पैदा हो रही हैं, इसलिये इस का नाम है 'भूमि'। परन्तु इस अवस्था से पूर्व की अवस्थाओं में भूमि उत्पादिकावस्था में न थी। सूर्य से जब यह पृथक् हुई तो यह आग्नेयावस्था में थी। शनैः शनैः यह ठण्डी हुई तो वायव्यावस्था में, तदनन्तर जलीयावस्था में, और बहुकाल पश्चात् दृढ़ावस्था में आई। 'पृथिवी च दृढ़ा' (यजु० ३२।६)। इस दृढ़ावस्था से पूर्व की अवस्थाओं में भूमि अपनी पूर्व-पूर्व की अवस्थाओं में परिणामों में अधिकाधिक विस्तृत थी, फैली हुई थी, प्रथितावस्था में थी। इसलिये इन प्रथितावस्थाओं में इसे, नाम द्वारा, पृथिवी कह सकते हैं। पृथिवी= प्रथ विस्तारे। जैसे-जैसे आग्नेयावस्था से उत्तरोत्तर की अवस्थाएं आती गई, वैसे-वैसे उत्तरोत्तर अवस्थाएं अपेक्षया परिणामों में अल्पाल्प होती गई। भूमिष्ठ पर्वतादि की अपेक्षया, भूमि, वर्तमान अवस्था में अधिक प्रथित है। अतः इसे पृथिवी कहा जाता है।]