अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चा॒न्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। त आ॑सं॒ जन्या॑स्ते व॒रा ब्रह्म॑ ज्येष्ठव॒रोभ॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑: । च॒ । ए॒व । आ॒स्ता॒म् । कर्म॑ । च॒ । अ॒न्त: । म॒ह॒ति । अ॒र्ण॒वे । ते । आ॒स॒न् । जन्या॑: । ते । व॒रा: । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽव॒र: । अ॒भ॒व॒त् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे। त आसं जन्यास्ते वरा ब्रह्म ज्येष्ठवरोभवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतप: । च । एव । आस्ताम् । कर्म । च । अन्त: । महति । अर्णवे । ते । आसन् । जन्या: । ते । वरा: । ब्रह्म । ज्येष्ठऽवर: । अभवत् ॥१०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(महति अर्णवे अन्तः) प्रलयरूपी महासमुद्र के भीतर, (तपः च, कर्म च एव) तप और कर्म (आस्ताम्) विद्यमान थे। (ते) वे दो (जन्याः) जनीपक्ष के घराती१ (आसन्) थे, (ते) वे दो (वराः) वरपक्ष के बराती थे (ब्रह्म) ब्रह्म (ज्येष्ठवरः) मुखिया वर (अभवत्) हुआ था।
टिप्पणी -
[तपः-कर्म =जनीपक्ष के तप और कर्म, और वरपक्ष के तपः और कर्म भिन्न-भिन्न हैं, जैसे कि जनीपक्ष के लोग और वर पक्ष के लोग भिन्न-भिन्न होते हैं, चाहे वे मनुष्यरूप में समान ही हैं। परमेश्वर के सम्बन्ध में तपः है, ज्ञानमय। यथा “यस्य ज्ञानमयं तपः" [मुण्डक १।१।९], अर्थात् "प्राणियों के कर्मों और तदनुरूप सृष्टि की रचना का पर्यालोचनरूपी तपः। परमेश्वर के सम्बन्ध में कर्म वह कर्म नहीं, जिस में कि स्थान परिवर्तन करना होता है। व्यापक के लिये स्थान परिवर्तन असम्भव है। परमेश्वर में कर्म या क्रिया स्वाभाविकी है। यथा “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च" (श्वेताश्वर, अध्या० ६, मंत्र ८)। इसकी व्याख्या में महर्षि दयानन्द, सप्तम समुल्लास, सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि "जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस में क्रिया भी हैं। "तदेजति तन्नैजति” (यजु० ४०।५) में भी, परमेश्वर में स्थान परिवर्तन रूप क्रिया का निषेधपूर्वक क्रियाविशेष का समर्थन हुआ है। कर्म मानसिक भी कहें हैं, चाहे उन कर्मों के करने में मन, शरीर से बाहिर गति नहीं करता। और परमेश्वर के कर्म राग-द्वेष से प्रेरित भी नहीं होते। सृष्टि की रचना भोग और अपवर्ग के लिये होती है, "भोगापवर्गार्थ दृश्यम्" (योग २।१८), मनुष्येतर प्राणियों के लिये भोगार्थ, और मनुष्यों के लिये भोगार्थ और अपवर्गार्थ। अतः मनुष्यों के कर्म इस प्रकार के होने चाहिये जोकि मनुष्यों को अपवर्ग की ओर बढ़ाने वाले हों। दुरित कर्मों का त्याग और भद्रकर्मों का उपादान करते हुए मनुष्य अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। भद्रकर्म यद्यपि सकाम है, क्योंकि भद्रकर्मों में भी अपवर्ग की कामना बनी रहती है। भद्रकर्म परिणाम में सुखदायक कल्याणकारी होते हैं (भदि कल्याणे सुखे च)। परन्तु भद्रकर्म अपवर्ग की प्राप्ति में सहायक होते हैं, बाधक नहीं। ऐसे भद्रकर्मों के सम्बन्ध में कहा है कि: कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः। एवन्त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ यजु० ४०।२।। अभिप्राय यह है कि मनुष्य जीवन भर भद्रकर्मों को करता रहे। भद्र कर्म मनुष्य को संसार में लिप्त नहीं करते। तपः अर्थात् तपोमय जीवन भी अपवर्ग में सहायक होता है। "तपः" तो, यम-नियमों आदि में एक अंग है, जो कि योगाङ्ग है। तपः द्वारा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है, इन के तमोगुण और रजोगुण का ह्रास होता है "कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः” (योग २।४३)। परमेश्वर के तपः और कर्म द्वारा परमेश्वर और प्रकृति का सम्बन्ध पति-पत्नी रूप में होकर प्रकृति में पत्नीत्व धर्म प्रकट करता है, जायत्वरूप नहीं। प्रकृति में जायात्वरूप तब प्रकट होगा जबकि प्रकृति में परमेश्वर की शक्ति के आधान द्वारा सृष्टि पैदा होगी। जैसे कहा है कि "जायायास्तद्धि जायात्वं२ यदस्यां जायते पुनः"। अतः जनिक्रिया के सम्बन्ध से प्रकृति में जायात्वधर्म प्रकट होता है। सृष्टि दो प्रकार की होती है, जड़ और चेतन। जड़-जगत् चेतनजगत् के भोग और अपवर्ग के लिये ही हैं। अतः चेतन-जगत् के तप और कर्म, प्रकृति में, जायात्व के उत्पादक हैं। अतः सृष्टि रचना के लिये, परमेश्वर और प्रकृति के सम्बन्ध के लिये, परमेश्वर के तप और कर्म हेतुभूत होकर वरपक्ष के "वराः" अर्थात् बरात का निर्माण करते हैं, और प्राणियों और मनुष्यों के तप और कर्म प्रकृति में जायात्वोत्पादन द्वारा "जन्या" अर्थात् कन्यापक्ष के घरातियों अर्थात् घर वालों का निर्माण करते हैं। मन्त्र में ब्रह्म और प्रकृति के परस्पर विवाह का वर्णन हुआ है। इसके द्वारा गृहस्थ जीवन की उपादेयता प्रतीत होती है३]। [१. कन्यापक्ष के घर के लोग। २. मन्त्र १ में विवाह काल में जो प्रकृति को जाया कहा है वह भावी जायात्व की दृष्टि से है। ३. सारांश मन्त्र २ तपः, कर्म= बराती और घराती। ब्रह्म के सम्बन्ध में तपः= ज्ञानमय, पर्यालोचन, स्वाभाविक ज्ञान। कर्म = स्वाभाविकी क्रिया, सृष्टिरचना में। प्राणियों के सम्बन्ध में तपः= इन्द्रिमसंयम। कर्म=सात्विक, राजस, तामस-शारीरिक तथा मानसिक कर्म।]