अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
यन्म॒न्युर्जा॒यामाव॑हत्संक॒ल्पस्य॑ गृ॒हादधि॑। क आ॑सं॒ जन्याः॒ के व॒राः क उ॑ ज्येष्ठव॒रोभ॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । म॒न्यु: । जा॒याम् । आ॒ऽअव॑हत् । स॒म्ऽक॒ल्पस्य॑ । गृ॒हात् । अधि॑ । के । आ॒स॒न् । जन्या॑: । के । व॒रा: । क: । ऊं॒ इति॑ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽव॒र: । अ॒भ॒व॒त् ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यन्मन्युर्जायामावहत्संकल्पस्य गृहादधि। क आसं जन्याः के वराः क उ ज्येष्ठवरोभवत् ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । मन्यु: । जायाम् । आऽअवहत् । सम्ऽकल्पस्य । गृहात् । अधि । के । आसन् । जन्या: । के । वरा: । क: । ऊं इति । ज्येष्ठऽवर: । अभवत् ॥१०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यत्) जब (मन्युः) मननशील परमेश्वर ने (संकल्पस्य गृहात् अधि) संकल्परूपी घर से (जायाम्) जाया को (आवहत्) प्राप्त किया, तब, (जन्याः) जायापक्ष के लोग (के आसन्) कौन थे, (के वराः) वर पक्ष के कौन थे, (क उ) और कौन (ज्येष्ठवरः) मुखिया वर, अर्थात् जिस ने वरण करना है (अभवत्) हुआ था।
टिप्पणी -
[प्रथम मनन, तदनन्तर वस्तु को प्राप्त करने का संकल्प, और तत्पश्चात् वस्तु को प्राप्त करने का कर्म अर्थात् प्रयत्न होता है,-यह नियम सर्वत्र लागू होता है। "मन्यु" शब्द द्वारा, जाया प्राप्त करने से पूर्व, परमेश्वरीय मनन का निर्देश किया है। यह मनन आलोचनारूप है कि सृष्टि को पैदा करू तो किस प्रकार, किस काल, और किस क्रम से करूं। इस मानुष स्वभाव का आरोप, परमेश्वर के सृष्ट्युत्पादन में, परमेश्वर में किया गया है। “संकल्पस्य गृहात्" में षष्ठी विकल्प रूप हैं। संकल्प-और-गृह भिन्न-भिन्न नहीं। यद्यपि अस्मदादि में संकल्प का घर "मन" होता है। तभी कहा है "तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु" (यजु० ३४।१-६)। मन्युः = मन्यते सर्व जानातीति, ईश्वरः (सायण)। संकल्पस्य = "सोऽकामयत१" (बृहद् उप० ९।४-७) द्वारा परमेश्वर में भी कामना की सत्ता का कथन हुआ है। यही कामना जब फलोन्मुखी हो जाती है तो इसे संकल्प कहते है। परमेश्वरनिष्ठ कामना सदा संकल्प रूपी होती है, वह सदा फलोन्मुखी होती है। अस्मदादि की कामना सदा फलोन्मुखी नहीं होती। इस लिये अस्मदादि की कामना और संकल्प में भेद पाया जाता है। विवाह में कई लोग तो जनी-पक्ष के होते हैं, और कई वर पक्ष के। वर-पक्ष के लोग कन्या का वरण करते हैं, चुनाव करते हैं, अतः मन्त्र में उन सब को "वरा" कहा है। परन्तु अन्तिम चुनाव जिसने करना है उसे "ज्येष्ठवरः” कहा है, और वह है जिस ने कि कन्या को विवाहित कर प्राप्त करना है। आवहत्= आ+वह (प्रापणे)] [१. "सोऽकामयत् बहु स्मां प्रजायेय' (तै० आ० ८।६।१)।]