अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 8/ मन्त्र 34
सूक्त - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
अ॒प्सु स्ती॒मासु॑ वृ॒द्धासु॒ शरी॑रमन्त॒रा हि॒तम्। तस्मि॒ञ्छवोऽध्य॑न्त॒रा तस्मा॒च्छवोऽध्यु॑च्यते ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्ऽसु । स्ती॒मासु॑ । वृ॒ध्दासु॑ । शरी॑रम् । अ॒न्त॒रा । हि॒तम् । तस्मि॑न् । शव॑: । अधि॑ । अ॒न्त॒रा । तस्मा॑त् । शव॑: । अधि॑ । उ॒च्य॒ते॒ ॥१०.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सु स्तीमासु वृद्धासु शरीरमन्तरा हितम्। तस्मिञ्छवोऽध्यन्तरा तस्माच्छवोऽध्युच्यते ॥
स्वर रहित पद पाठअप्ऽसु । स्तीमासु । वृध्दासु । शरीरम् । अन्तरा । हितम् । तस्मिन् । शव: । अधि । अन्तरा । तस्मात् । शव: । अधि । उच्यते ॥१०.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 34
भाषार्थ -
(वृद्धासु) बढ़े हुए, (स्तीमासु) तथा अनाद्र गर्भ को आर्द्र करते हुए (अप्सु) जलों के (अन्तरा) मध्य में (शरीरम्) शरीर (हितम्) निहित होता है। (तस्मिन्) उस शरीर के (अन्तरा) मध्य में (अधि) अधिष्ठातृरूप में (शवः) बलस्वरूप या बली जीवात्मा होता है, (तस्मात्) इस कारण (शवः) बलस्वरूप या बली जीवात्मा (अधि) शरीर का अधिष्ठाता१ (उच्यते) कहा जाता है।
टिप्पणी -
[शवः बलनाम (निघं० २।९); शवः अर्श आद्यच् = बली। मन्त्र में मातृगर्भ में विद्यमान शरीर का वर्णन हुआ है। यह भी कहा है कि उस अवस्था का शरीर निरात्मक नहीं होता, अपितु उस में बलस्वरूप या बली जीवात्मा रहता है, जोकि शरीर का अधिष्ठाता हो कर उस की रक्षा तथा वृद्धि करता है। इन मन्त्रों में स्थान-स्थान पर “शरीरम्" का वर्णन हुआ है। साथ ही मन्त्र ३३ में कर्मों द्वारा जीवात्मा की त्रिविध गति का वर्णन करते हुए भिन्न-भिन्न योनियों में जीवात्मा के जाने का भी वर्णन हुआ है। अतः इस प्रसङ्गानुसार जीवात्मा के गर्भवास का वर्णन उचित ही प्रतीत होता है। स्तीमासु= ष्टीम् आर्द्रीभावे। ष्टीम= ष्टीम् + पचाद्यच्=ष्टीमासु-स्तीमासु]। [१. मन्त्र ३० में प्रजापति रूप में जीवात्मा को शरीर में अधिष्ठाता कहा है।]