अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 14
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
इ॒यं वेदिः॒ परो॒ अन्तः॑ पृथि॒व्या अ॒यं सोमो॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतः॑। अ॒यं य॒ज्ञो विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ नाभि॑र्ब्र॒ह्मायं वा॒चः प॑र॒मं व्योम ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒यम् । वेदि॑: । पर॑: । अन्त॑: । पृ॒थि॒व्या: । अ॒यम् । सोम॑: । वृष्ण॑: । अश्व॑स्य । रेत॑: । अ॒यम् । य॒ज्ञ: । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । नाभि॑: । ब्र॒ह्मा । अ॒यम् । वा॒च: । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥१५.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
इयं वेदिः परो अन्तः पृथिव्या अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः। अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिर्ब्रह्मायं वाचः परमं व्योम ॥
स्वर रहित पद पाठइयम् । वेदि: । पर: । अन्त: । पृथिव्या: । अयम् । सोम: । वृष्ण: । अश्वस्य । रेत: । अयम् । यज्ञ: । विश्वस्य । भुवनस्य । नाभि: । ब्रह्मा । अयम् । वाच: । परमम् । विऽओम ॥१५.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(इयम् वेदिः) यह वेदि (पृथिव्याः) पृथिवी का (परः अन्तः) परला अन्त है, (अयम्) यह (सोमः) चन्द्रमा (वृष्णः) वर्षा करने वाले तथा किरणों से व्याप्त सूर्य का रेतस् अर्थात् वीर्य है। (अयम्, यज्ञः) यह यज्ञ (विश्वस्य भुवनस्य) समग्र भूमण्डल की (नाभिः) नाभि हैं, (प्रथम् ब्रह्म) यह ब्रह्मा है (वाचः) वाणी का (परमम् व्योम) आकाशवत् परम रक्षा स्थान है।
टिप्पणी -
[पृथिवी गोल है। गोल वस्तु का प्रारम्भिक बिन्दु और अन्त का बिन्दु कोई निश्चित नहीं होता। उस का प्रत्येक बिन्दु प्रारम्भिक बिन्दु है और अन्तिम बिन्दु भी। वैदिक धर्म यतः यज्ञप्रधान है, इस दृष्टि से यज्ञ के स्थान वेदि को पृथिवी का परम अन्त कह दिया है। सोम हैं चन्द्रमा। उस की पूर्णता तथा कलाक्षय सूर्य पर निर्भर है। सूर्य की एक रश्मि "सुषुम्णः१" चन्द्रमा को प्रकाशित कर उस के स्वरूप का निर्माण करती है। यह रश्मि है सूर्य का रेतस्, इस से मानो चन्द्रमा का जन्म होता है। इसलिये सोम को सूर्य का रेतस् कहा है। यह सूर्य वर्षा का कारण हैं, इसलिये इसे "वृष्णः" कहा है, यह रश्मियों से व्याप्त है, इसलिये इसे अश्व कहा है "अशूङ् व्याप्तौ"। वृष्णः का अर्थ रेतस्-वर्षक भी अभिप्रेत है, मानो सूर्यरूपी अश्व, चन्द्रमा पर रश्मिरेतस् की वर्षा करता है। भुवन की नाभि है यज्ञ। गर्भस्थ शिशु नाभि द्वारा माता से पुष्टि पाता है, भुवन की पुष्टि यज्ञरूपी नाभि द्वारा होती है- यह अभिप्राय है। वाणियों का सम्बन्ध आकाश के साथ है "आकाशगुणः शब्दः"। वेदवाणियों का आश्रय या रक्षक ब्रह्मा है, जगत्कर्तृत्वस्वरूप में ब्रह्म है।] [१. सुषुम्णः सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः” (यजु० १८।४०)। गन्धर्वः= गां सूर्यरश्मिं चरतीति। सुषुम्णः = सु+सुम्नम् (सुखनाम, निघं० ३।६)। सूर्य की रश्मि चन्द्रमा पर पड़ कर सुखदायी हो जाती है। गर्मी नहीं देती।]