अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 27
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
च॒त्वारि॒ वाक्परि॑मिता प॒दानि॒ तानि॑ विदुर्ब्राह्म॒णा ये म॑नी॒षिणः॑। गुहा॒ त्रीणि॒ निहि॑ता॒ नेङ्ग॑यन्ति तु॒रीयं॑ वा॒चो म॑नु॒ष्या वदन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठच॒त्वारि॑ । वाक् । परि॑ऽमिता । प॒दानि॑ । तानि॑ । वि॒दु॒: । ब्रा॒ह्म॒णा: । ये । म॒नी॒षिण॑: । गुहा॑ । त्रीणि॑ । निऽहि॑ता । न । इ॒ङ्ग॒य॒न्ति॒ । तु॒रीय॑म् । वा॒च: । म॒नु॒ष्या᳡: । व॒द॒न्ति॒ ॥१५.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः। गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठचत्वारि । वाक् । परिऽमिता । पदानि । तानि । विदु: । ब्राह्मणा: । ये । मनीषिण: । गुहा । त्रीणि । निऽहिता । न । इङ्गयन्ति । तुरीयम् । वाच: । मनुष्या: । वदन्ति ॥१५.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(वाक्) वाणी है (चत्वारि) चार (परिमिता) मापे हुए (पदानि) पद या वाणी के हैं चार स्थान (तानि) उन्हें (मनीषिणः) मन का संयम करने वाले (ब्राह्मणाः) वेदज्ञ (विदुः) जानते हैं। (त्रीणि) तीन पद (गुहा निहिता) गुहा [बुद्धि] में रखे हुए (न इङ्गयन्ति) गति नहीं करते अर्थात् अज्ञात रहते हैं, (वाचः) वाणी के (तुरीयम्) चतुर्थांश को (मनुष्याः) मनुष्य (वदन्ति) बोलते हैं।
टिप्पणी -
[चत्वारि= नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात (महर्षि दयानन्द)। परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, –ये ४ पद अर्थात् शब्द [सुबन्त, तिङन्त पद] है, या चार इनके स्थान है। चारों पदों के स्वरूपों और स्थानों को वेदज्ञ मनीषी जानते हैं। तीन पद तो बुद्धि में या गुफा में मानो छिपे रहते हैं। सब मनुष्य केवल वाणी के चतुर्थांश [वैखरी] को बोलते हैं। परा= बुद्धि के अन्तःस्थल में अज्ञायमान संस्कार रूप में वर्तमान वाणी। पश्यन्ती = बुद्धि में विभक्त पदों में निष्ठ वाणी। मध्यमा= मन में अशब्दरूप में निष्ठ विचाररूपा वाक्यवाणी। वैखरी = कण्ठ तथा मुखावयवों द्वारा खर अर्थात् कठोर स्वरूपा बोली जाने वाली वाणी]।