अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
हि॑ङ्कृण्व॒ती व॑सु॒पत्नी॒ वसू॑नां व॒त्समि॒च्छन्ती॒ मन॑सा॒भ्यागा॑त्। दु॒हाम॒श्विभ्यां॒ पयो॑ अ॒घ्न्येयं सा व॑र्धतां मह॒ते सौभ॑गाय ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒ङ्ऽकृ॒ण्व॒ती । व॒सु॒ऽपत्नी॑ । वसू॑नाम् । व॒त्सम् । इ॒च्छन्ती॑ । मन॑सा । अ॒भि॒ऽआगा॑त् । दु॒हाम् । अ॒श्विऽभ्या॑म् । पय॑: । अ॒घ्न्या । इ॒यम् । सा । व॒र्ध॒ता॒म् । म॒ह॒ते । सौभ॑गाय ॥१५.५॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्कृण्वती वसुपत्नी वसूनां वत्समिच्छन्ती मनसाभ्यागात्। दुहामश्विभ्यां पयो अघ्न्येयं सा वर्धतां महते सौभगाय ॥
स्वर रहित पद पाठहिङ्ऽकृण्वती । वसुऽपत्नी । वसूनाम् । वत्सम् । इच्छन्ती । मनसा । अभिऽआगात् । दुहाम् । अश्विऽभ्याम् । पय: । अघ्न्या । इयम् । सा । वर्धताम् । महते । सौभगाय ॥१५.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(अघ्न्या) न हनन के योग्य गौ जैसे (हिड्कृण्वती) हिङ्कारती हुई, और (मनसा) मन से (वत्सम्) बछड़े को (इच्छन्ती) चाहती हुई, (अभ्यागात्) बछड़े के अभिमुख आती है, वैसे (वसूनां वसुपत्नी) सम्पत्तियों की स्वामिनी वेदमाता, निज स्वाध्यायी पुत्र की, मानो स्वेच्छया चाहती हुई, प्राप्त हो जाती है। (इयम्) यह (अघ्न्या) नित्या वेदमाता, (अश्विभ्याम्) स्वाध्यायी स्त्री-पुरुषों के लिये, (पयः) ज्ञान दुग्ध (दुग्धाम्) देती है, (सा) वह (महते सौभमाय) हमारे महासौभाग्य के लिये (वर्धताम्) बढ़े, सर्वत्र उस का विस्तार हो।
टिप्पणी -
[हिङ्कृण्वती = इस पद द्वारा ऋचाओं पर सामगान को सूचित किया है "ऋच्यधिरूढं साम गीयते"। सामगान के ५ अवयव होते हैं, (१) हिं, (२) प्रस्ताव, (३) उद्गीथ (४) प्रतिहार, (५) निधन। हिङ्कृण्वती द्वारा पंचविध सामगान का निर्देश किया है जो कि गेयरूपी वैदिक ऋचाओं पर गाया जाता है। वसुपत्नी= वेद में नाना विध सम्पत्तियों का वर्णन है, तथा वसुरूप सदुपदेशों का वर्णन है अतः वह वसुपत्नी है। वेद का नित्य स्वाध्याय होने पर वेद का रहस्य स्वयमेव प्रकट होने लगता है "उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे" (ऋ० १०।७१।४)। अघ्न्या= न हनन योग्या चतुष्पाद् गौ (निघं० २।११); तथा पदनाम (निघं० ५।५)। गौ के सम्बन्ध में हिङकृण्वती= हम्भारती हुई।