अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 23
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
अ॒पादे॑ति प्रथ॒मा प॒द्वती॑नां॒ कस्तद्वां॑ मित्रावरु॒णा चि॑केत। गर्भो॑ भा॒रं भ॑र॒त्या चि॑दस्या ऋ॒तं पिप॑र्त्यनृ॑तं॒ नि पा॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒पात् । ए॒ति॒ । प्र॒थ॒मा । प॒त्ऽवती॑नाम् । क: । तत् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । आ । चि॒के॒त॒ । गर्भ॑: । भा॒रम् । भ॒र॒ति॒ । आ । चि॒त् । अ॒स्या॒: । ऋ॒तम् । पिप॑र्ति । अनृ॑तम् । नि । पा॒ति॒ ॥१५.२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत। गर्भो भारं भरत्या चिदस्या ऋतं पिपर्त्यनृतं नि पाति ॥
स्वर रहित पद पाठअपात् । एति । प्रथमा । पत्ऽवतीनाम् । क: । तत् । वाम् । मित्रावरुणा । आ । चिकेत । गर्भ: । भारम् । भरति । आ । चित् । अस्या: । ऋतम् । पिपर्ति । अनृतम् । नि । पाति ॥१५.२३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 23
भाषार्थ -
(अपाद्) पादरहित उषा (पद्वतीनाम्) पादवाली प्रजाओं से (प्रथमा) पहले (एति) आती है, (मित्रावरुणा) हे सूर्य-और-चन्द्रमा ! (वाम्) तुम दोनों में से (कः) कौन (तद्) उस घटना को (आ चिकेत) जानता है। (चित्) चिद्-ब्रह्म (गर्भः) गर्भीभूत हुआ, (अस्याः) इस उषा के (भारम्) भार को (भरति) धारण करता है, या (भरति=हरति) ढो रहा है। वह गर्भ (ऋतम्) ऋत को (पिपर्ति) पालित करता है, और (अनृतम्) अनृत को (निपाति) पूर्णतया पी जाता है, निगल जाता है।
टिप्पणी -
["अपाद्" उषा पाद वाली प्रजाओं से पहले आती है, अर्थात् उषा तो निज कार्य में व्याप्त हो जाती है जब कि पादों वाले मनुष्य अभी अपने अपने निज कार्यो में व्याप्त नहीं होने पाते। इस तथ्य को न तो सूर्य जानता है, और न चन्द्रमा। क्योंकि जब उषा आती है उस समय द्युलोक में न सूर्य की स्थिति होती है, न चन्द्रमा की। सूर्य उषा के पश्चात् उदित होता है, और चन्द्रमा रात को। परन्तु प्रश्न यह है कि उषा का संचालन कौन करता है? वेद ने उत्तर दिया कि “चिद्”, चिद्-ब्रह्म। चिद्-ब्रह्म उषा में गर्भरूप में स्थित है। जैसे सारथि रथ में स्थित हुआ रथ का संचालन करता है, या ड्राईवर मोटर या इञ्जन में स्थित हुआ मोटर ओर इंजन का संचालन करता है इसी प्रकार चिद्-ब्रह्म उषा के गर्भ में स्थित हुआ उषा का संचालन करता है। पिपति = पॄ पालनपुरणयोः (जुहोत्यादिः)। निपाति= पा को पिब आदेश नहीं हुआ। अतः निपाति१–नितरां पिबति, निगिरति] [१.अथवा निपाति= निः +पै (शोषणे, भ्वादिः) नितरां सुखा देता है। वैदिक प्रयोग]