अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 25
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
श॑क॒मयं॑ धू॒ममा॒राद॑पश्यं विषू॒वता॑ प॒र ए॒नाव॑रेण। उ॒क्षाणं॒ पृश्नि॑मपचन्त वी॒रास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् ॥
स्वर सहित पद पाठश॒क॒ऽमय॑म् । धू॒मम् । आ॒रात् । अ॒प॒श्य॒म् । वि॒षु॒ऽवता॑ । प॒र: । ए॒ना । अव॑रेण । उ॒क्षाण॑म् । पृश्नि॑म् । अ॒प॒च॒न्त॒ । वी॒रा: । तानि॑ । धर्मा॑णि । प्र॒थ॒मानि॑ । आ॒स॒न् ॥१५.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
शकमयं धूममारादपश्यं विषूवता पर एनावरेण। उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् ॥
स्वर रहित पद पाठशकऽमयम् । धूमम् । आरात् । अपश्यम् । विषुऽवता । पर: । एना । अवरेण । उक्षाणम् । पृश्निम् । अपचन्त । वीरा: । तानि । धर्माणि । प्रथमानि । आसन् ॥१५.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 25
भाषार्थ -
(शकमयम्) प्रचुरशक्ति वाले (धूमम्) धूम को (आरात्) अपने समीप (अपश्यम्) मैंने देखा है, जो कि (विषूवता) अन्तरिक्ष में फैलने वाले (एना) इस प्रत्यक्ष (अवरेण) अवर धूम से (परः) उत्कृष्ट है। (उक्षाणम्) मुझ में शक्ति सींचने वाले, (पृश्निम्) संसार को स्पर्श किये हुए परमेश्वर को (वीराः) ध्यानवीर योगी (अपचन्त) परिपक्व करते हैं, अभिव्यक्त करते रहे हैं, या अभिव्यक्त करते हैं, (तानि) वे और उस प्रकार के (धर्माणि) धर्म कर्म (प्रथमानि) मुख्य या सर्वश्रेष्ठ (आसन्) रहें हैं, या हैं।
टिप्पणी -
[मन्त्र में दो प्रकार के धूम का वर्णन हुआ है, अवर धूम का और "परः" धूम का। अवर धूम विषवत् है, अन्तरिक्ष में फैलने वाला है। "विष्लृ व्याप्तौ"। और "परः धूम" समीपवर्ती है। आरात् दूरसामीप्ययोः। मन्त्र में "आरात" का अर्थ है समीप। द्रष्टा ने इस समीप के धूम को देखा है। यह आध्यात्मिक धूम है, काष्ठ और शकृतजन्य नहीं। आध्यात्मिक धूम का वर्णन श्वेताश्वतर उपनिषद् में हुआ है। यथा– नीहारधूमार्कानलानिलानां खद्योतविद्युत्स्फटिकशशीनाम्। एतानि रूपाणि पुरःसराणि ब्रह्मण्यभिव्यक्तिकराणि योगे ।। अध्याय २, खण्ड ११॥ कोहरा, धूम, सूर्य, अग्नि, वायु, जुगनू या आकाश में द्युतिमान् तारागण; स्फटिक, चान्द— ये रूप योगाभ्यास में प्रथम दृष्टिगोचर होते हैं, जो कि ब्रह्म की अभिव्यक्ति के सूचक होते हैं। मन्त्र २५ में इस आध्यात्मिक धूम का वर्णन हुआ है जिसे कि "परः" कहा है, श्रेष्ठ कहा है। मन्त्र में "अपचन्त" पद पठित है, जिस का अर्थ "पकाना" प्रतीत होता है, साथ ही "उक्षा" पद भी पठित है जिस का प्रसिद्ध अर्थ है बैल। इन दो शब्दों को देखकर अथर्ववेद के आङ्गलभाषा में अनुवाद के कर्ता "ह्विटनी" ने अर्थ किया है "The heroes coocked a spotted ox" अर्थात् "वीरों ने चितकबरे बैल को पकाया"। अपचन्त में पच धातु है। भ्वादिगण में "पचि व्यक्तीकरणे" भी पठित है, जिस का अर्थ है "अभिव्यक्त करना"। श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रमाण में भी “अभिव्यक्तिकराणि" ही पाठ है। इस प्रकार मन्त्र और श्वेताश्वतर में शब्दों और अर्थ में साम्य हो जाता है। "पचि" धातु यद्यपि आत्मनेपदी है, और "नुम्" की अपेक्षा करती है। परन्तु वैदिक प्रयोगों और लौकिक संस्कृत के प्रयोगों में प्रायः वैषम्य पाया जाता है। इसलिये अष्टाध्यायी में "बहुलं छन्दसि" कहा है। साथ ही पाकार्थक “पच्" धातु का अर्थ मन्त्र में संगत नहीं होता। "उक्षाणं पृश्निअपचन्त वीराः" में यदि यह भावना हो कि "वीर" परमेश्वर का परिपाक करते हैं, उसे ध्यानाभ्यास में परिपक्व करते हैं तब "अपचन्त” में “पच्” धातु परिपाक अर्थ में भी संगत प्रतीत होती हैं]।