अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 21
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
गौरिन्मि॑माय सलि॒लानि॒ तक्ष॑ती॒ एक॑पदी द्वि॒पदी॒ सा चतु॑ष्पदी। अ॒ष्टाप॑दी॒ नव॑पदी बभू॒वुषी॑ स॒हस्रा॑क्षरा॒ भुव॑नस्य प॒ङ्क्तिस्तस्याः॑ समु॒द्रा अधि॒ वि क्ष॑रन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठगौ: । इत् । मि॒मा॒य॒ । स॒लि॒लानि॑ । तक्ष॑ती । एक॑ऽपदी । द्वि॒ऽपदी॑ । सा । चतु॑:ऽपदी । अ॒ष्टाऽप॑दी । नव॑ऽपदी । ब॒भू॒वुषी॑ । स॒हस्र॑ऽअक्षरा । भुव॑नस्य । प॒ङ्क्ति: । तस्या॑: । स॒मु॒द्रा: । अधि॑ । वि । क्ष॒र॒न्ति॒ ॥१५.२१॥
स्वर रहित मन्त्र
गौरिन्मिमाय सलिलानि तक्षती एकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा भुवनस्य पङ्क्तिस्तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठगौ: । इत् । मिमाय । सलिलानि । तक्षती । एकऽपदी । द्विऽपदी । सा । चतु:ऽपदी । अष्टाऽपदी । नवऽपदी । बभूवुषी । सहस्रऽअक्षरा । भुवनस्य । पङ्क्ति: । तस्या: । समुद्रा: । अधि । वि । क्षरन्ति ॥१५.२१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 21
भाषार्थ -
(सलिलानि) जलों का (तक्षती) निर्माण करती हुई (गौः) माध्यमिका अर्थात् अन्तरिक्षस्था वाक् [विद्युत्] (मिमाय) शब्द करती है। वह (एकपदी नवपदी) एक पदी आदि (बभूवुषी) होती हुई (सहस्राक्षरा) हजारों जल धाराओं को क्षरित करती हुई, (भुवनस्य) जल का (पंक्तिः) विस्तार करती है। (तस्याः अधि) उस से (समुद्राः) समुद्र (विक्षरन्ति) अलग-अलग क्षरित होते हैं। [पार्थिव समुद्र वर्षाजनित ही है]।
टिप्पणी -
[गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। मिमाय= माङ माने शब्दे च (जुहोत्यादिः)। तक्षती =कुर्वती (निरुक्त ११।४।४०)। सहस्राक्षरा=बहूदका (निरुक्त ११।४।४०)। तथा अक्षरः, अक्षरम्, अक्षराः=उदकम् (निघं० १।१२)। भुवनस्य; भूवनम् उदक नाम (निघं० १।१२)। पंक्तिः= पचि विस्तारवचने (चुरादिः)। एकपदी सम्भवतः एकपाद, द्विपाद आदि वाले मन्त्रों में वर्णित वाक् [विद्युत्]। निरुक्त में कहा है कि "एकपदी मध्यमेन, द्विपदी मध्यमेन च आदित्येन च, चतुष्पदी दिग्भिः, अष्टापदी दिग्भिश्चावान्तरदिग्भिश्च, नवपदी दिग्भिश्चावान्तरदिग्भिश्चादित्येन च"। अर्थात् इन ९ स्थानों में बाक् [विद्युत्] के होने के कारण वाक् [विद्युत्] एकपदी आदि है। तथा गौः=वेद वाक् (गौः वाङ्नाम, निघं० १।११)। यह "एकपाद" आदि मन्त्रों में विभक्त है। यह सहस्राक्षरा अर्थात हजारों अक्षरों [अर्थात वर्णमाला के अक्षरों] द्वारा निर्मित है। शतपथ ब्राह्मण में तीन वेदों में १०८००X८० अक्षर कहे हैं (का० १०।४।२।२५)।सलिलानि = बहुनाम (निघं० ३।१)। "बहु" शब्द विशेषण है, इसका उपयुक्त विशेष्य 'ज्ञान' प्रतीत होता है। अतः मन्त्र २१ में सलिलानि= बहूनि ज्ञानानि। वेदवाक् नानाविध ज्ञानों का निर्माण अर्थात् प्रकाश करती है। वेदवाक् से समुद्र क्षरित हुए हैं ४ वेद, जो कि ज्ञानसागर हैं]।