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  • अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 2/ मन्त्र 20
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - रोहितः, आदित्यः, अध्यात्मम् छन्दः - आर्षी गायत्री सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त

    प्र॒त्यङ्दे॒वानां॒ विशः॑ प्र॒त्यङ्ङुदे॑षि॒ मानु॑षीः। प्र॒त्यङ्विश्वं॒ स्वर्दृ॒शे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒त्यङ् । दे॒वाना॑म् । विश॑: । प्र॒त्यङ् । उत् । ए॒षि॒ । मानु॑षी: । प्र॒त्यङ् । विश्व॑म् । स्व᳡: । दृ॒शे ॥२.२०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्यङ्देवानां विशः प्रत्यङ्ङुदेषि मानुषीः। प्रत्यङ्विश्वं स्वर्दृशे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रत्यङ् । देवानाम् । विश: । प्रत्यङ् । उत् । एषि । मानुषी: । प्रत्यङ् । विश्वम् । स्व: । दृशे ॥२.२०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 2; मन्त्र » 20

    पदार्थ -
    [हे सूर्य !] (देवानाम्) गतिशील [चन्द्र आदि लोकों] की (विशः) प्रजाओं को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर, (मानुषीः) मानुषी मनुष्य संबन्धी [पार्थिव प्रजाओं] को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर और (विश्वम्) सब जगत् को (प्रत्यङ्) सन्मुख होकर (स्वः) सुख से (दृशे) देखने के लिये (उत्) ऊँचा होकर (एषि) तू प्राप्त होता है ॥२०॥

    भावार्थ - सूर्य गोल आकार बहुत बड़ा पिण्ड है, इसलिये वह सब लोकों को सन्मुख दीखता है, और सब लोक उसके आकर्षण प्रकाशन आदि से सुख पाते हैं, ऐसे ही परमात्मा के सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान् होने से उसके नियम पर चलकर सब सुखी रहते हैं ॥२०॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।५०।५, और सामवेद−पू० ६।१४।१० ॥

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